गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

तिक्‍खुत्तो का पाठ


तिक्‍खुत्तो, आयाहिणं-पयाहिणं करेमि। वंदामि-नमंसामि। सक्‍कारेमि-सम्‍माणेमि, कल्‍लाणं- मंगलं, देवयं-चेइयं, पज्‍जुवासामि। मत्‍थएण वंदामि।

अर्थ- मैं तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा (वंद्य की दाहिनी ओर से दक्षिणवर्ती छाती से प्रारंभ करके छाती तक) प्रदक्षिणा आवर्त करता हूँ। नमस्‍कार करता हूँ। सत्‍कार करता हूँ। सम्‍मान करता हूँ। (आप) कल्‍याण-आह्लादकारक की पर्युपासना करता हूँ। मस्‍तक झुकाकर वंदना करता हूँ।

सामायिक लेने का पाठ

करेमि, भंते! सामाइयं, सावज्जं जोगं पच्चक्खामि।
जावनियमं (जितनी सामायिक करना हो, उतनी
संख्या बोलना) मुहुत्तं पज्जुवासामि। दुविहं-तिविहेणं,
न करेमि, न कारवेमि, मणसा-वयसा-कायसा, तस्स भंते! पडिक्कामामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

सामायिक पारने का पाठ


एयस्स नवमस्स सामाइयवयस्स, पंच अइयारा जाणिजव्वा, न समायरियव्वा, तंजहा, मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइ अकरणया, सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं! सामाइय वयं, सम्मंकाएणं, न फासियं, नपालियं, न तीरियं, न किट्टियं, न सोहियं, न आराहियंआणाए अणुपालियं न भवइ; तस्स मिच्छा मि दुक्कडं!

जिन्हें पाठ के उच्चारण में समस्या हो वें हिंदी में इसे पढें

सामायिक में दस मन के, दस वचन के और बारह काया के, इन बत्तीस दोषों में से कोई भी दोष (जानते हुए अथवा नहीं जानते हुए भी) लगा हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।

सामायिक में स्त्री कथा (स्त्रियाँ यहाँ पुरुष कथा कहें) देशकथा, राजकथा और भक्त (भोजन) कथा में से कोई भी विकथा कही हो, ‍(सुनी हो अथवा चाही हो) तो तस्स मि दुक्कडं।

सामायिक व्रत में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, जानता-अजानता अतिचार पाप दोष लगा हो, तो तस्स मिच्छा‍मि दुक्कडं।

सामायिक में आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा में से किसी भी संज्ञा का सेवन किया हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।

सामायिक व्रत विधिपूर्वक लिया, विधि से ही परिपूर्ण किया, फिर भी विधि में कोई अविधि हुई हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।

सामायिक का पाठ बोलने में कामा, मात्रा, अनुस्वार, पद, अक्षर, ह्रस्व, दीर्घ, न्यूनाधिक विपरीत पढ़ने में आया हो, तो अर्हन्त, अनंत सिद्ध, केवली भगवान की साक्षी से तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।




सोमवार, 27 नवंबर 2017

लोगस्स सूत्र


लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे ।
अरिहंते कित्तइस्सं चऊवीसं पि केवली ॥1॥

उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइ च ।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥2॥

सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल-सिज्जंस-वासुपूज्जं च ।
विमलमणंतं च जिणं धम्मं संतिं च वंदामि ॥3॥

कुंथुं अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च ।
वंदामि रिट्ठनेमिं, पासं तह वद्धमाणं च ॥4॥

एवं मए अभिथुआ, विहुय-रय-मला, पहीण-जर-मरणा ।
चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा में पसीयंतु ॥5॥

कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा ।
आरुग्ग बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥6॥

चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागरवर गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥7॥

णमोकार महामंत्र

णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं,
णमो आयरियाणं,
णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं।

एसो पंच णमोक्कारो, सव्व पाव-प्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥

जैन पूजाएँ

शनिवार, 4 नवंबर 2017

सुविचार 04.11.17


*छोटी सी मछली पानी के उल्टे बहाव में भी आगे निकल जाती है जबकि एक बड़ा हाथी तक उस बहाव मे बह जाता है... क्योंकि मछली पानी की शरण में है। ऐसे ही जो प्रभु की शरण में हैं, वे विपरीत परिस्थिति में भी संसार सागर से तर जाते हैं"...! जीवन में दो चीजों को कभी व्यर्थ न जाने दे..!!*
*अन्न के कण को...!!*
       *"और"*
*आनंद के क्षण को*
   *सुप्रभात*🌹🌹  
*आपका दिन शुभ हो* 🙏🏻🙏🏻

बुधवार, 18 अक्टूबर 2017

दीपावली शुभ मुहूर्त 2017


कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीवाली पर्व मनाया जाता है। जो इस बार 19 अक्टूबर 2017 को पड़ रही है। दीवाली में आप इन शुभ मुहूर्त में लक्ष्मी पूजन करेंगे तो विशेष फलदायी होगा।

दीवाली शाम में 5.38 बजे से 8.14 बजे तक प्रदोष काल रहेगा। इस बीच शाम 7.05 बजे से रात 9 बजे तक वृष लग्न में पूजा करना विशेष शुभप्रद माना जा रहा है। इसके साथ ही निशीथ काल और महानिशीथ काल में भी पूजा का शुभ समय है।

प्रदोष काल शाम 5.38 बजे से 8.14 बजे तक रहेगा। शाम 7.05 बजे से रात 9 बजे तक वृष लग्न में पूजा करना विशेष शुभप्रद रहेगा। शाम 5.40 बजे से 7.18 बजे तक अमृत की चौघड़िया रहने से इस योग में दीपदान, महालक्ष्मी, गणेश कुबेर पूजन, बहीखाता पूजन शुभ रहेगा।






सोमवार, 16 अक्टूबर 2017

सुविचार 16.10.17


👏🏻 🌿 *"आज का सुविचार*,,,,,

*"लोग समझते हैं,कि "नरम दिल" वाले बेवकूफ होते हैं*,,,!
*"जबकि सच्चाई यह है,कि* *"नरम दिल" वाले बेवकूफ नही होते*,,,!
*"वे बखूबी ये जानते हैं,कि लोग उनके साथ क्या कर रहे हैं*,,,!
*"पर हर बार लोगों को माफ करना*,,,!
*"यह जाहिर करता है,कि वो एक खूबसूरत “दिल” के मालिक हैं*,,,!
*"और,वे “रिश्तों”* *को सँभालना बखूबी जानते हैं*,,,!
🌹👏🏻👏🏻 👏🏻👏🏻🌹

" *इंसान तो हर घर मे जन्म लेता हैं*,,,!
" *बस इंसानियत् कहीं-कहीं ही जन्म लेती हैं*,,,!                                        
               

सुविचार

शनिवार, 5 अगस्त 2017

विश्वकर्मा जी की पूजा की विधि


विधि:

भगवान विश्वकर्मा की पूजा और यज्ञ विशेष विधि-विधान से होता है। इसकी विधि यह है कि यज्ञकर्ता स्नानादि-नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पत्नी सहित पूजास्थान में बैठे। इसके उपरांत विष्णु भगवान का ध्यान करे। तत्पश्चात् हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर-ओम आधार शक्तपे नम: और ओम् कूमयि नम:, ओम् अनन्तम नम:, पृथिव्यै नम:, ऐसा कहकर चारों दिशाओ में अक्षत छिड़के और पीली सरसों लेकर दिग्बंधन करे। अपने रक्षासूत्र बांधे एवं पत्नी को भी बांधे। पुष्प जलपात्र में छोड़े। इसके बाद हृदय में भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करें। रक्षादीप जलाये, जलद्रव्य के साथ पुष्प एवं सुपारी लेकर संकल्प करें। शुद्ध भूमि पर अष्टदल कमल बनाएं। उस स्थान पर सप्त धान्य रखें। उस पर मिट्टी और तांबे का जल डालें। इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृन्तिका, सुपारी, दक्षिणा कलश में डालकर कपड़े से कलश का आच्छादन करें। चावल से भरा पात्र समर्पित कर ऊपर विश्वकर्मा की मूर्ति स्थापित करें और वरुण देव का आह्वान करें। पुष्प चढ़ाकर प्रार्थना पूर्वक नमस्कार करें व आग्रह करें-हे विश्वकर्मा देवता, इस मूर्ति में विराजिए और मेरी पूजा स्वीकार कीजिए। इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करें।
मेषःनियोजित रूप से काम करने से व्यावसायिक योजनाएं सफल होंगी। 

सरस्वती स्त्रोत


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रान्विता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ।।1।।
आशासु राशीभवदंगवल्लीभासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम ।
मन्दस्मितैर्निन्दितशारदेन्दुं वन्देsरविन्दासनसुन्दरि त्वाम ।।2।।
शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे ।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात ।।3।।
सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृदेवताम ।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जना: ।।4।।
पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्न: सरस्वती ।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ।।5।।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम ।
हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम ।।6।।
वीणाधरे विपुलमंगलदानशीले, भक्तार्तिनाशिनि विरिंचिहरीशवन्द्ये ।
कीर्तिप्रदेsखिलमनोरथदे महार्हे, विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम ।।7।।
श्वेताब्जपूर्णविमलासनसंस्थिते हे, श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे ।
उद्यन्मनोज्ञसितपंकजमंजुलास्ये, विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम ।।8।।
मातस्त्वदीयपदपंकजभक्तियुक्ता, ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय ।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण, भूवह्निवायुगगनाम्बुविनिर्मितेन ।।9।।
मोहान्धकारभरिते ह्रदये मदीये, मात: सदैव कुरु वासमुदारभावे ।
स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभि:, शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम ।।10।।
ब्रह्मा जगत सृजति पालयतीन्दिरेश:, शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावै: ।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे, न स्यु: कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षा: ।।11।।
लक्ष्मीर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तुष्टि: प्रभा धृति: ।
एताभि: पाहि तनुभिरष्टाभिर्मां सरस्वति ।।12।।
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम: ।
वेदवेदान्तवेदांगविद्यास्थानेभ्य: एव च ।।13।।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने ।
विद्यारुपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोsस्तु ते ।।14।।
यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।।15।।

सरस्वती/शारदा माँ की स्तुति


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना । या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥

जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमलासन पर बैठती हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें ।

शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे । सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥

शरत्काल में उत्पन्न कमल के समान मुखवाली और सब मनोरथों को देनेवाली शारदा सब सम्पत्तियों के साथ मेरे मुख में सदा निवास करें ।

सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृदेवताम् । देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जना: ॥

वाणी की अधिष्ठात्री उन देवी सरस्वती को प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से मनुष्य देवता बन जाता है ।

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं । वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् । हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां वन्दे ताम् परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥

जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्व हैं, जो सब संसार में फैले रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिकमणि की माला लिए रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ ।

पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्न: सरस्वती । प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥

बुद्धिरूपी सोने के लिए कसौटी के समान सरस्वती जी, जो केवल वचन से ही विद्धान् और मूर्खों की परीक्षा कर देती है, हमलोगों का पालन करें

सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने । विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते ॥

हे महाभाग्यवती ज्ञानरूपा कमल के समान विशाल नेत्र वाली, ज्ञानदात्री सरस्वती ! मुझको विद्या दो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।

सरस्वति नमौ नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम: । वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च ॥

सरस्वती को नित्य नमस्कार है, भद्रकाली को नमस्कार है और वेद, वेदान्त, वेदांग तथा विद्याओं के स्थानों को प्रणाम है ।

सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने । विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते ॥

हे महाभाग्यवती ज्ञानरूपा कमल के समान विशाल नेत्र वाली, ज्ञानदात्री सरस्वती ! मुझको विद्या दो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।

लक्ष्मीर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तुष्टि: प्रभा धृति: । एताभि: पाहि तनुभिरष्टाभिर्मां सरस्वति ॥

हे सरस्वती ! लक्ष्मी, मेघा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, धृति - इन आठ मूर्तियों से मेरी रक्षा करो ।

आशासु राशीभवदङ्गवल्लीभासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम् । मन्दस्मितैर्निन्दितशारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासनसुन्दरी त्वाम् ॥

हे कमल पर बैठनेवाली सुन्दरी सरस्वती ! तुम सब दिशाओं में पुंजीभूत हुई अपनी देहलता की आभा से ही क्षीर-समुद्र को दास बनानेवाली और मन्द मुसकान से शरद् ऋतु के चन्द्रमा को तिरस्कृत करनेवाली हो, आपको मैं प्रणाम करता हूँ ।

वीणाधरे विपुलमङ्गलदानशीले भक्तार्तिनाशिनि विरिञ्चिहरीशवन्द्ये । कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे विद्याप्रदायिनि सरस्वतिनौमि नित्यम् ॥

हे वीणा धारण करनेवाली, अपार मंगल देनेवाली, भक्तों के दुःख छुड़ाने वाली, ब्रह्मा, विष्णु और शिव से वन्दित होनेवाली कीर्ति तथा मनोरथ देनेवाली, पूज्यवरा और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।

श्वेताब्जपूर्णविमलासनसंस्थिते हे श्वेताम्बरावृतमनोहरमञ्जुगात्रे । उद्यन्मनोज्ञसितपङ्कजमञ्जुलास्ये विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥

हे श्वेत कमलों से भरे हुए निर्मल आसन पर विराजनेवाली, श्वेत वस्त्रों से ढके सुन्दर शरीरवाली, खिले हुए सुन्दर श्वेत कमल के समान मंजुल मुखवाली और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।

मोहान्धकारभरिते ह्रदये मदीये मात: सदैव कुरु वासमुदारभावे । स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभि: शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥

हे उदार बुद्धिवाली माँ ! मोहरूपी अन्धकार से भरे मेरे हृदय में सदा निवास करो और अपने सब अंगो की निर्मल कान्ति से मेरे मन के अन्धकार का शीघ्र नाश करो ।


श्री नारायण स्तुति


श्री-नारायण-स्तुति

देव नौमि नारायणं नरं करूणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं।
अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं।1।

श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।
तरूण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन-राकेश, कर-निकर-हायं।2।

सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं।
अरूण पदकंज-मकरंद-मंदाकिनी मधुप -मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं।3।

शक्र-प्रेरित घोर मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी।
मार्कण्डेय मुतिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी।4।

पुण्य वन शैलसरि बाद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं।
सिद्ध-योगींद्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं।5।

मान मनभंग, चितभंग मद ,क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन -भर्ता।
द्वेष -मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता।6।

विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।
धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा।7।

परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न्हिं हाथ वर विरति -यष्टी।
दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश, त्राहि हरित्र त्राहि हरि,दास कष्टी।8।

दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति,खेद, मति मोह नाशी।
देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी।9।

शिव ताण्डव स्तोत्र


जटाटवी–गलज्जल–प्रवाह–पावित–स्थले
गलेऽव–लम्ब्य–लम्बितां–भुजङ्ग–तुङ्ग–मालिकाम्
डमड्डमड्डमड्डम–न्निनादव–ड्डमर्वयं
चकार–चण्ड्ताण्डवं–तनोतु–नः शिवः शिवम् .. १..

जटा–कटा–हसं–भ्रमभ्रमन्नि–लिम्प–निर्झरी-
–विलोलवी–चिवल्लरी–विराजमान–मूर्धनि .
धगद्धगद्धग–ज्ज्वल–ल्ललाट–पट्ट–पावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम .. २..

धरा–धरेन्द्र–नंदिनीविलास–बन्धु–बन्धुर
स्फुर–द्दिगन्त–सन्ततिप्रमोद–मान–मानसे .
कृपा–कटाक्ष–धोरणी–निरुद्ध–दुर्धरापदि
क्वचि–द्दिगम्बरे–मनो विनोदमेतु वस्तुनि .. ३..

जटा–भुजङ्ग–पिङ्गल–स्फुरत्फणा–मणिप्रभा
कदम्ब–कुङ्कुम–द्रवप्रलिप्त–दिग्व–धूमुखे
मदान्ध–सिन्धुर–स्फुरत्त्व–गुत्तरी–यमे–दुरे
मनो विनोदमद्भुतं–बिभर्तु–भूतभर्तरि .. ४..

सहस्रलोचनप्रभृत्य–शेष–लेख–शेखर
प्रसून–धूलि–धोरणी–विधू–सराङ्घ्रि–पीठभूः
भुजङ्गराज–मालया–निबद्ध–जाटजूटक:
श्रियै–चिराय–जायतां चकोर–बन्धु–शेखरः .. ५..

ललाट–चत्वर–ज्वलद्धनञ्जय–स्फुलिङ्गभा-
निपीत–पञ्च–सायकं–नमन्नि–लिम्प–नायकम्
सुधा–मयूख–लेखया–विराजमान–शेखरं
महाकपालि–सम्पदे–शिरो–जटाल–मस्तुनः.. ६..

कराल–भाल–पट्टिका–धगद्धगद्धग–ज्ज्वल
द्धनञ्ज–याहुतीकृत–प्रचण्डपञ्च–सायके
धरा–धरेन्द्र–नन्दिनी–कुचाग्रचित्र–पत्रक
–प्रकल्प–नैकशिल्पिनि–त्रिलोचने–रतिर्मम … ७..

नवीन–मेघ–मण्डली–निरुद्ध–दुर्धर–स्फुरत्
कुहू–निशी–थिनी–तमः प्रबन्ध–बद्ध–कन्धरः
निलिम्प–निर्झरी–धरस्त–नोतु कृत्ति–सिन्धुरः
कला–निधान–बन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः .. ८..

प्रफुल्ल–नीलपङ्कज–प्रपञ्च–कालिमप्रभा-
–वलम्बि–कण्ठ–कन्दली–रुचिप्रबद्ध–कन्धरम् .
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकछिदं तमंतक–च्छिदं भजे .. ९..

अखर्वसर्व–मङ्ग–लाकला–कदंबमञ्जरी
रस–प्रवाह–माधुरी विजृंभणा–मधुव्रतम् .
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्त–कान्ध–कान्तकं तमन्तकान्तकं भजे .. १०..

जयत्व–दभ्र–विभ्र–म–भ्रमद्भुजङ्ग–मश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रम–स्फुरत्कराल–भाल–हव्यवाट्
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्ग–तुङ्ग–मङ्गल
ध्वनि–क्रम–प्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः .. ११..

दृष–द्विचित्र–तल्पयोर्भुजङ्ग–मौक्ति–कस्रजोर्
–गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्वि–पक्षपक्षयोः .
तृष्णार–विन्द–चक्षुषोः प्रजा–मही–महेन्द्रयोः
समप्रवृतिकः कदा सदाशिवं भजे .. १२..

कदा निलिम्प–निर्झरीनिकुञ्ज–कोटरे वसन्
विमुक्त–दुर्मतिः सदा शिरःस्थ–मञ्जलिं वहन् .
विमुक्त–लोल–लोचनो ललाम–भाललग्नकः
शिवेति मंत्र–मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् .. १३..

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४ ॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥

इदम् हि नित्य–मेव–मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धि–मेति–संततम् .
हरे गुरौ सुभक्तिमा शुयातिना न्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् .. १६..

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे .
तस्य स्थिरां रथ गजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां
लक्ष्मीं सदैवसुमुखिं प्रददाति शंभुः .. १७..

अर्थ:

जिन शिव जी की सघन जटारूप वन से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित क होती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्यान करें

जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अंनुराग प्रतिक्षण बढता रहे।

जो पर्वतराजसुता(पार्वती जी) केअ विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे।

मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूँ जो सभी प्राणियों की के आधार एवं रक्षक हैं, जिनके जाटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समुहरूपकेसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गजचर्म से विभुषित हैं।

जिन शिव जी का चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों के धूल से रंजित हैं (जिन्हे देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पन करते हैं), जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभि देवों द्वारा पुज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्दी प्रदान करें।

जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है ( यहाँ पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो।

जिनका कण्ठ नवीन मेंघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभि प्रकार की सम्पनता प्रदान करें।

जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभुषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खो के काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ

जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढी हूई प्रचंण अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।

कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टूकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।

कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।

इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो, परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।

प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।

शनि कवच


II शनि कवचं II

अथ श्री शनिकवचम्

अस्य श्री शनैश्चरकवचस्तोत्रमंत्रस्य कश्यप ऋषिः II

अनुष्टुप् छन्दः II शनैश्चरो देवता II शीं शक्तिः II

शूं कीलकम् II शनैश्चरप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः II

निलांबरो नीलवपुः किरीटी गृध्रस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान् II

चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्नः सदा मम स्याद्वरदः प्रशान्तः II १ II

 II ब्रह्मोवाच II

 श्रुणूध्वमृषयः सर्वे शनिपीडाहरं महत् I
कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमनुत्तमम् II २ II

कवचं देवतावासं वज्रपंजरसंज्ञकम् I
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम् II ३ II

ॐ श्रीशनैश्चरः पातु भालं मे सूर्यनंदनः I
नेत्रे छायात्मजः पातु पातु कर्णौ यमानुजः II ४ II

नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे भास्करः सदा I
स्निग्धकंठःश्च मे कंठं भुजौ पातु महाभुजः II ५ II

स्कंधौ पातु शनिश्चैव करौ पातु शुभप्रदः I
वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितत्सथा II ६ II

नाभिं ग्रहपतिः पातु मंदः पातु कटिं तथा I
ऊरू ममांतकः पातु यमो जानुयुगं तथा II ७ II

पादौ मंदगतिः पातु सर्वांगं पातु पिप्पलः I
अङ्गोपाङ्गानि सर्वाणि रक्षेन्मे सूर्यनंदनः II ८ II

इत्येतत्कवचं दिव्यं पठेत्सूर्यसुतस्य यः I
न तस्य जायते पीडा प्रीतो भवति सूर्यजः II ९ II

व्ययजन्मद्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोSपि वा I
कलत्रस्थो गतो वापि सुप्रीतस्तु सदा शनिः II १० II

अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे I
कवचं पठतो नित्यं न पीडा जायते क्वचित् II ११ II

इत्येतत्कवचं दिव्यं सौरेर्यनिर्मितं पुरा I
द्वादशाष्टमजन्मस्थदोषान्नाशायते सदा I
जन्मलग्नास्थितान्दोषान्सर्वान्नाशयते प्रभुः II १२ II

 II इति श्रीब्रह्मांडपुराणे ब्रह्म-नारदसंवादे शनैश्चरकवचं संपूर्णं II 

श्रीसूर्यकवच


II अथ श्रीसूर्यकवचस्तोत्रम् II

श्री गणेशाय नमः I
याज्ञवल्क्य उवाच I

श्रुणुष्व मुनिशार्दूल सूर्यस्य कवचं शुभम् I
शरीरारोग्यदं दिव्यं सर्व सौभाग्यदायकम् II १ II

दैदिप्यमानं मुकुटं स्फ़ुरन्मकरकुण्डलम् I
ध्यात्वा सहस्रकिरणं स्तोत्रमेतदुदीरयेत् II २ II

शिरो मे भास्करः पातु ललाटे मेSमितद्दुतिः I
नेत्रे दिनमणिः पातु श्रवणे वासरेश्वरः II ३ II

घ्राणं धर्म धृणिः पातु वदनं वेदवाहनः I
जिह्वां मे मानदः पातु कंठं मे सुरवंदितः II ४ II

स्कंधौ प्रभाकरं पातु वक्षः पातु जनप्रियः I
पातु पादौ द्वादशात्मा सर्वागं सकलेश्वरः II ५ II

सूर्यरक्षात्मकं स्तोत्रं लिखित्वा भूर्जपत्रके I
दधाति यः करे तस्य वशगाः सर्वसिद्धयः II ६ II

सुस्नातो यो जपेत्सम्यक् योSधीते स्वस्थ मानसः I
स रोगमुक्तो दीर्घायुः सुखं पुष्टिं च विंदति II ७ II

II इति श्री माद्याज्ञवल्क्यमुनिविरचितं सूर्यकवचस्तोत्रं संपूर्णं II

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

लक्ष्मी जी की स्तुति


अगर आप भी माता की कृपा पाना चाहते हैं तो लक्ष्मी जी की पूजा विधि-विधान से करने के बाद लक्ष्मी स्तुति का पाठ जरुर करना चाहिए। जिससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होगी।

लक्ष्मी स्तुति इस प्रकार है-

आदि लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु परब्रह्म स्वरूपिणि।
यशो देहि धनं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।1।।

सन्तान लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु पुत्र-पौत्र प्रदायिनि।
पुत्रां देहि धनं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।2।।

विद्या लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु ब्रह्म विद्या स्वरूपिणि।
विद्यां देहि कलां देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।3।।

धन लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सर्व दारिद्र्य नाशिनि।
धनं देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।4।।

धान्य लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सर्वाभरण भूषिते।
धान्यं देहि धनं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।5।।

मेधा लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु कलि कल्मष नाशिनि।
प्रज्ञां देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।6।।

गज लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सर्वदेव स्वरूपिणि।
अश्वांश गोकुलं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।7।।

धीर लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु पराशक्ति स्वरूपिणि।
वीर्यं देहि बलं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।8।।

जय लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सर्व कार्य जयप्रदे।
जयं देहि शुभं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।9।।

भाग्य लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सौमाङ्गल्य विवर्धिनि।
भाग्यं देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।10।।

कीर्ति लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु विष्णुवक्ष स्थल स्थिते।
कीर्तिं देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।11।।

आरोग्य लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सर्व रोग निवारणि।
आयुर्देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।12।।

सिद्ध लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सर्व सिद्धि प्रदायिनि।
सिद्धिं देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।13।।

सौन्दर्य लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु सर्वालङ्कार शोभिते।
रूपं देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।14।।

साम्राज्य लक्ष्मि नमस्तेऽस्तु भुक्ति मुक्ति प्रदायिनि।
मोक्षं देहि श्रियं देहि सर्व कामांश्च देहि मे।।15।।

मङ्गले मङ्गलाधारे माङ्गल्ये मङ्गल प्रदे।
मङ्गलार्थं मङ्गलेशि माङ्गल्यं देहि मे सदा।।16।।

सर्व मङ्गल माङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्रयम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तुते।।17।।

शुभं भवतु कल्याणी आयुरारोग्य सम्पदाम्।

शिव कवच



अमोघ शिव कवच के शुद्ध सत्य अनुष्ठान से भयंकर से भयंकर विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है और भगवान आशुतोष की कृपा हो जाती है |

अथ विनियोग:

अस्य श्री शिव कवच स्त्रोत्र मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप छंद:, श्री सदाशिव रुद्रो देवता, ह्रीं शक्ति:, रं कीलकम, श्रीं ह्रीं क्लीं बीजं, श्री सदाशिव प्रीत्यर्थे शिवकवच स्त्रोत्र जपे विनियोग: |

अथ न्यास: ( पहले सभी मंत्रो को बोलकर क्रम से करन्यास करे | तदुपरांत इन्ही मंत्रो से अंगन्यास करे| )

करन्यास

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने अन्गुष्ठाभ्याम नम: |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने तर्जनीभ्याम नम: |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने मध्यमाभ्याम नम:|
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्याम नम: |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्याम नम: |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्याम नम: |


अंगन्यास

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने हृदयाय नम: |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने शिरसे स्वाहा |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने शिखायै वषट |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने नेत्रत्रयाय वौषट |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कवचाय हुम |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट |

अथ दिग्बन्धन:

ॐ भूर्भुव: स्व: |

ध्यानम

कर्पुरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम |
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ||

श्री शिव कवचम

ॐ नमो भगवते सदाशिवाय, सकलतत्वात्मकाय, सर्वमंत्रस्वरूपाय, सर्वमंत्राधिष्ठिताय, सर्वतंत्रस्वरूपाय, सर्वतत्वविदूराय, ब्रह्मरुद्रावतारिणे, नीलकंठाय, पार्वतीमनोहरप्रियाय, सोमसुर्याग्नीलोचनाय, भस्मोधूलितविग्रहाय, महामणिमुकुटधारणाय, माणिक्यभूषणाय, सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय, दक्षाध्वरध्वन्सकाय, महाकालभेदनाय, मुलाधारैकनिलयाय, तत्वातीताय, गंगाधराय, सर्वदेवाधिदेवाय, षडाश्रयाय, वेदांतसाराय, त्रिवर्गसाधनाया नेक्कोटीब्रहमांडनायकायानन्त्वासुकीतक्षककर्कोटकशंखकुलिकपद्ममहापद्मेत्यष्टनागकुलभूषणाय, प्रणवरूपाय, चिदाकाशायाकाशदिकस्वरूपाय, ग्रहनक्षत्रमालिने, सकलायकलंकरहिताय, सकललोकैककर्त्रे, सकललोकैकसंहर्त्रे, सकललोकैकगुरवे, सकललोकैकभर्त्रे, सकललोकैकसाक्षीणे, सकलनिगमगुह्याय, सकलवेदांतपारगाय, सकललोकैकवरप्रदाय, सकललोकैकशंकराय, शशांकशेखराय, शाश्वतनिजावासाय, निराभासाय, निरामयाय, निर्मलाय, निर्लोभाय, निर्मोहाय, निर्मदाय, निश्चिन्ताय, निर्हंकाराय, निराकुलाय, निष्कलन्काय, निर्गुणाय, निष्कामाय, निरुप्लवाय, नीवद्याय, निरन्तराय, निष्कारणाय, निरातंकाय, निष्प्रपंचाय, नि:संगाय, निर्द्वंदाय, निराधाराय, नीरोगाय, निष्क्रोधाय, निर्गमाय, निष्पापाय, निर्भयाय, निर्विकल्पाय, निर्भेदाय, निष्क्रियाय, निस्तुल्याय, निस्संशयाय, निरंजनाय, निरुपम विभवाय, नित्यशुद्धबुद्धपरिपूर्णसच्चिदानंदाद्वयाय, परमशांतस्वरूपाय, तेजोरूपाय, तेजोमयाय,
जयजय रूद्रमहारौद्र, भद्रावतार, महाभैरव, कालभैरव, कल्पान्तभैरव, कपाल मालाधर, खट्वांगखंगचर्मपाशांकुशडमरूकरत्रिशूल चापबाणगदाशक्तिभिन्दिपालतोमरमुसलमुदगरप्रासपरिघभुशुण्डीशतघ्नीचक्रद्यायुद्धभीषणकर, सहस्रमुख, दंष्ट्रा कराल वदन, विक्टाट हास विस्फारित ब्रहमांड मंडल, नागेन्द्र कुंडल, नागेन्द्रहार, नागेन्द्र वलय, नागेन्द्र चर्मधर, मृत्युंजय, त्रयम्बक, त्रिपुरान्तक, विश्वरूप, विरूपाक्ष, विश्वेश्वर, वृषवाहन, विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष माम |

ज्वल ज्वल महामृत्युअपमृत्युभयं नाशय नाशय चौर भयंमुत्सारयोत्सारय: विष सर्प भयं शमय शमय: चौरान मारय मारय: मम शत्रून उच्चाटयोच्चाटय: त्रिशुलेंन विदारय विदारय: कुठारेण भिन्धि भिन्धि: खंगेन छिन्धि छिन्धि: खट्वांगेन विपोथय विपोथय: मूसलेन निष्पेषय निष्पेषय: बाणे: संताडय संताडय: रक्षांसि भीषय भीषयाशेष्भूतानी विद्रावय विद्रावय: कुष्मांडवेतालमारीचब्रहमराक्षसगणान संत्रासय संत्रासय: माम अभयं कुरु कुरु: वित्रस्तं माम अश्वास्याश्वसय: नरक भयान माम उद्धरौद्धर: संजीवय संजीवय: क्षुत्रिडभ्यां माम आप्यापय आप्यापय: दु:खातुरं माम आनंदय आनंदय : शिव कवचे न माम आच्छादय आच्छादय: मृत्युंजय! त्रयम्बक! सदाशिव!!! नमस्ते नमस्ते ||

कुलदेवी/कुलदेवता की पूजा विधि


कुलदेवी/कुलदेवता की पूजा कैसे करें

प्रत्येक हिन्दू वंश और कुलों में कुल देवता अथवा कुल देवी की पूजा की परंपरा रही है |इस परंपरा को हमारे पूर्वजों और ऋषियों ने शुरू किया था |उद्देश्य था एक ऐसे सुरक्षा कवच का निर्माण जो हमारी सुरक्षा भी करे और हमारी उन्नति में भी सहायक हो |यह हर कुल और वंश के लिए विशिष्ट प्रकार की उर्जाओं की आराधना है ,जिसमे हर वंश के साथ अलग विशिष्टता और परंपरा जुडी होती है |कुछ वंश में कुल देवी होती हैं तो कुछ में कुल देवता |आज के समय में अधिकतर हिन्दू परिवारों में लोग कुल देवी और कुल देवता को भूल चुके हैं जिसके कारण उनका सुरक्षा चक्र हट चूका है और उन तक विभिन्न बाधाएं बिना किसी रोक टोक के पहुच रही हैं |परिणाम स्वरुप बहुत से परिवार परेशान हैं | उसी के निवारण हेतु यह पूजा विधि दी गई है|

सामग्री :--------- २ पानी वाले नारियल, लाल वस्त्र ,२ सुपारिया ,८ या १६ शृंगार कि वस्तुये ,पान के पत्ते , घी का दीपक, कुंकुम ,हल्दी ,सिंदूर ,पांच प्रकार कि मिठाई ,हलवा ,खीर ,भिगोया चना ,बताशा ,कपूर ,जनेऊ ,पंचमेवा ,दो चांदी की सुपारियाँ ,दो सिक्के ,मौली या कलावा या रक्षा सूत्र ,जौ -चना -गेहूं की पूरी ,बैगन की सब्जी ,कढ़ी और बेसन ,उड़द की छानी बरी ,कुछ कढ़ी में भिगोई कुछ अलग ,चने की दाल पकी हुई ,पका चावल |

साधना विधि :---- सर्वप्रथम पूर्वाभिमुख हो एक लकड़ी के बाजोट या चौकी पर लाल कपड़ा बिछाएं |उस पर दो जगह रोली और हल्दी के मिश्रण से अष्टदल कमल बनाएं |अब उत्तर की ओर किनारे के अष्टदल पर सफ़ेद अक्षत बिछाएं उसके बाद दक्षिण की ओर लाल रंग से रंग हुआ चावल बिछाएं |दोनों नारियल में मौली लपेटें |एक नारियल को एक तरफ किनारे सफ़ेद चावल के अष्टदल पर स्थापित करें |अब  दुसरे नारियल को कुंकुम से रंग दें अथवा लाल वस्त्र में लपेट दें ,फिर इस पर मौली बांधे |इस नारियल को पहले वाले नारियल के बायीं और अष्टदल पर स्थापित करें |प्रथम बिना रंगे नारियल के सामने एक पान का पत्ता और दुसरे नारियल के सामने एक पान का पत्ता रखें |अब दोनों पत्तों पर एक एक सिक्का रखें ,फिर सिक्कों पर एक एक चांदी की सुपारियाँ रखें |प्रथम नारियल के सामने के एक पत्ते पर की चांदी की सुपारी पर मौली लपेट कर रखें इस प्रकार की सुपारी दिखती रहे ,यह आपके कुल देवता होंगे ऐसी भावना रखें |दुसरे नारियल और उनके सामने के पत्ते पर आपकी कुल देवी की स्थापना है | इनके सामने की चांदी की सुपारी को पूरी तरह मौली से लपेट दें |अब इनके सामने एक दीपक स्थापित कर दीजिये.|

अब गुरुपूजन और गणपति पूजन संपन्न कीजिये.| अब दोनों नारियल और सुपारियों की चावल, कुंकुम,  हल्दी ,सिंदूर, जल ,पुष्प,  धुप और दीप से पूजा कीजिये. |जहाँ कुमकुम से रंगा नारियल है अथवा लाल कपडे से ढका  नारियल है वहां कुमकुम, सिन्दूर और श्रृंगार सामग्रियां चढ़ेंगी |बिना रंगे नारियल पर सिन्दूर न चढ़ाएं ,हल्दी -रोली चढ़ा सकते हैं ,यहाँ जनेऊ चढ़ाएं ,जबकि दूसरी जगह जनेऊ न  चढ़ाए | इस प्रकार से पूजा करनी है | अब पांच प्रकार की मिठाई इनके सामने अर्पित करें |.घर में बनी पूरी -हलवा -खीर ,कढ़ी ,बैगन की सब्जी ,चावल ,चने की दाल आदि इन्हें अर्पित करें |चना ,बताशा चढ़ाएं |,आरती करें |साधना समाप्ति के बाद प्रसाद परिवार मे ही बाटना है.| श्रृंगार पूजा मे कुलदेवी कि उपस्थिति कि भावना करते हुये श्रृंगार सामग्री लाल नारियल के सामने चढा दे और माँ को स्वीकार करने की विनती कीजिये.|

इसके बाद हाथ जोड़कर इनसे अपने परिवार से हुई भूलों आदि के लिए क्षमा मांगें और प्राथना करें की हे प्रभु ,हे देवी ,हे मेरे कुलदेवता या कुल देवी आप जो भी हों हम आपको भूल चुके हैं ,किन्तु हम पुनः आपको आमंत्रित कर रहे हैं और पूजा दे रहें हैं आप इसे स्वीकार करें |हमारे कुल -परिवार की रक्षा करें |हम स्थान ,समय ,पद्धति आदि भूल चुके हैं ,अतः जितना समझ आता है उस अनुसार आपको पूजा प्रदान कर रहे हैं ,इसे स्वीकार कर हमारे कुल पर कृपा करें |
यह पूजा नवरात्र की सप्तमी -अष्टमी और नवमी तीन तिथियों में करें |इन तीन दिनों तक रोज इन्हें पूजा दें ,जबकि स्थापना एक ही दिन होगी | प्रतिदिन आरती करें ,प्रसाद घर में ही वितरित करें ,बाहरी को न दें |सामान्यतय पारंपरिक रूप से कुलदेवता /कुलदेवी की पूजा में घर की कुँवारी कन्याओं को शामिल नहीं किया जाता और उन्हें दीपक देखने तक की मनाही होती है ,किन्तु इस पद्धति में जबकि पूजा तीन दिन चलेगी कन्याएं शामिल हो सकती हैं ,अथवा इस हेतु अपने कुलगुरु अथवा किसी विद्वान् से सलाह लेना बेहतर होगा |वैसे यहाँ जबतक दीपक जले कम से कम तब तक कन्या इसे न देखे तो बेहतर |कन्या अपने ससुराल जाकर वहां की रीती का पालन करे |इस पूजा में चाहें तो दुर्गा अथवा काली का मंत्र जप भी कर सकते हैं ,किन्तु साथ में तब शिव मंत्र का जप भी अवश्य करें |वैसे यह आवश्यक नहीं है ,क्योकि सभी लोग पढ़े लिखे हों और सही ढंग से मंत्र जप कर सकें यह जरुरी नहीं |

साधना समाप्ति के बाद सपरिवार आरती करे.| इसके बाद क्षमा प्राथना करें |तत्पश्चात कुलदेवता /कुलदेवी से प्राथना करें की आप हमारे कुल की रक्षा करें हम अगले वर्ष पुनः आपको पूजा देंगे ,हमारी और परिवार की गलतियों को क्षमा करें हम आपके बच्चे हैं |तीन दिन की साधना /पूजा पूर्ण होने पर प्रथम बिना रंगे नारियल के सामने के सिक्के सुपारी को जनेऊ समेत किसी डिब्बी में सुरक्षित रख ले |लाल रंगे नारियल के सामने की सुपारी और सिक्के को अलग डिब्बी में सुरक्षित करें ,जिस पर लिख लें कुलदेवी |अगले साल यही रखे जायेंगे कुलदेवी /कुलदेवता के स्थान पर |अन्य वस्तुओं में से सिक्के और पैसे रुपये जो आपने चढ़ाए हों किसी सात्विक ब्राह्मण को दान कर दें |प्रसाद घर वालों में बाँट दें तथा अन्य सामग्रियां बहते जल अथवा जलाशय में प्रवाहित कर दें |

विशेष --- यह पूजा पद्धति हिन्दू ,जैन ,सिक्ख ,सिन्धी ,गुजराती ,मराठी सभी को दृष्टिगत रखते हुए बनाई गयी है और इसमें ऐसी प्रक्रिया अपनाई गयी है जिससे उनके तात्कालिक धर्म -सम्प्रदाय की मान्यता और पूजा आदि से कोई टकराव न हो |चूंकि यह सभी दुर्गा ,काली ,शिव को मानते हैं और सभी के कुलदेवता शिव परिवार से ही होते हैं अतः सभी इस पूजा को कर सकते हाँ |यदि पूजा करने में या समझने में कोई दिक्कत हो तो किसी योग्य कर्मकांडी की मदद लें |एक बार अच्छे से समझ कर पूजा करें और इसे हर साल जारी रखें |योग्य का मार्गदर्शन आपकी सफलता में वृद्धि करेगा |यह पूजा पद्धति हमारे द्वारा विभिन्न पद्धतियों का अध्ययन कर मध्य मार्ग के रूप में चुना गया है और सामान्यजन के लाभार्थ प्रस्तुत है |सबके लिए उपयुक्त हो आवश्यक नहीं ,|जो पूजन पद्धति एक बार अपनाई जाए उसे फिर बदला न जाए |सामान्य भोजन सामग्री चढाने का उद्देश्य यह है की पूर्व से ही सभी परिवारों में पारंपरिक रूप से उनके स्थानानुसार उपलब्ध भोज्य पदार्थ चढ़ते आये हैं और यह उनकी विशिष्टता होती है |हमारा उद्देश्य केवल ऐसे परिवारों को एक सुरक्षा कवच और कुलदेवी/कुलदेवता की एक सामान्य पूजा प्रदान करना है |कितने सफल हैं हम विद्वत जन विचार करें|


नोट ---- जो पूजा पद्धति एक बार अपनाई जायेगी वह फिर कभी बदली नहीं जा सकती ,टमाटर अथवा विदेशी मूल के खाद्यपदार्थ का उपयोग कुलदेवी /देवता के पूजा में न करें ,अपितु जो भारतीय मूल की वनस्पतियाँ हैं उनका ही उपयोग करें |आप अपने स्थान पर पारंपरिक रूप से बन रहे मूल खाद्य पदार्थ यहाँ चढ़ाएं और बेहतर होगा |एक बार स्थापित किये गए चादी की सुपारियों के रूप में कुलदेवी और देवता ही मूल सिक्के के साथ हमेशा के लिए कुलदेवी /देवता का स्थान लेंगे ,इन्हें नहीं बदला जा सकता न इनके साथ के सिक्के को ही बदला जा सकता है |हर साल अलग से चढ़ाए दक्षिणा के रूप के सोक्कों को अलग करके दान कर दें या मंदिर में चढ़ा दें ,वस्त्र जो पिछले साल के हों उन्हें प्रवाहित कर दें ,जाये चढ़े आसन रुपी वस्त्र ,और जनेऊ आदि के साथ चढ़ा एक पुष्प भी पूजा समाप्ति के बाद अलग डिब्बी में रख दें देवता समेत |अगले साथ यह वस्त्र और ,जनेऊ और पुष्प बदल जायेंगे |कोशिश पूरी करें की घर की अविवाहित कन्याएं पूजा समय जलते हुए दीपक को न देखें ,न कुलदेवता /देवी को छुएं |दीपक बुझने पर प्रणाम कर सकती हैं | 

कवच

श्री नारायण कवच


अंगन्यासः
ॐ ॐ पादयोः नमः ।
ॐ नं जानुनोः नमः ।
ॐ मोम् ऊर्वोः नमः ।
ॐ नाम् उदरे नमः ।
ॐ रां हृदि नमः ।
ॐ यम् उरसि नमः ।
ॐ णां मुखे नमः ।
ॐ यं शिरसि नमः ।

करन्यासः
ॐ ॐ दक्षिणतर्जन्याम् नमः ।
ॐ नं दक्षिणमध्यमायाम् नमः ।
ॐ मों दक्षिणानामिकायाम् नमः ।
ॐ भं दक्षिणकनिष्ठिकायाम् नमः ।
ॐ गं वामकनिष्ठिकायाम् नमः ।
ॐ वं वामानिकायाम् नमः ।
ॐ तें वाममध्यमायाम् नमः ।
ॐ वां वामतर्जन्याम् नमः ।
ॐ सुं दक्षिणांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि नमः ।
ॐ दें दक्षिणांगुष्ठाधः पर्वणि नमः ।
ॐ वां वामांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि नमः ।
ॐ यं वामांगुष्ठाधः पर्वणि नमः ।

विष्णुषडक्षरन्यासः
ॐ ॐ हृदये नमः ।
ॐ विं मूर्ध्नै नमः ।
ॐ षं भ्रुर्वोर्मध्ये नमः ।
ॐ णं शिखायाम् नमः ।
ॐ वें नेत्रयोः नमः ।
ॐ नं सर्वसंधिषु नमः ।
ॐ मः प्राच्याम् अस्त्राय फट् ।
ॐ मः आग्नेय्याम् अस्त्राय फट् ।
ॐ मः दक्षिणस्याम् अस्त्राय फट् ।
ॐ मः नैऋत्ये अस्त्राय फट् ।
ॐ मः प्रतीच्याम् अस्त्राय फट् ।
ॐ मः वायव्ये अस्त्राय फट् ।
ॐ मः उदीच्याम् अस्त्राय फट् ।
ॐ मः ऐशान्याम् अस्त्राय फट् ।
ॐ मः ऊर्ध्वायाम् अस्त्राय फट् ।
ॐ मः अधरायाम् अस्त्राय फट् ।

अथ श्रीनारायणकवच

॥राजोवाच॥
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्॥१॥

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथास्स्ततायिनः शत्रून् येन गुप्तोस्जयन्मृधे॥२॥

॥श्रीशुक उवाच॥
वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेंद्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु॥३॥

विश्वरूप उवाचधौतांघ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः।
कृतस्वांगकरन्यासो मंत्राभ्यां वाग्यतः शुचिः॥४॥

नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि॥५॥

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा॥६॥

करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारंतमंगुल्यंगुष्ठपर्वसु॥७॥

न्यसेद् हृदय ओंकारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्॥८॥

वेकारं नेत्रयोर्युंज्यान्नकारं सर्वसंधिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मंत्रमूर्तिर्भवेद् बुधः॥९॥

सविसर्गं फडंतं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ॥१०॥

आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मंत्रमुदाहरेत ॥११॥

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्तांघ्रिपद्मः पतगेंद्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोस्ष्टगुणोस्ष्टबाहुः ॥१२॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोस्व्यात् त्रिविक्रमः खे‌உवतु विश्वरूपः ॥१३॥

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहो‌உसुरयुथपारिः।
विमुंचतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥१४॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामो‌உद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोस्व्याद् भरताग्रजोस्स्मान् ॥१५॥

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबंधात् ॥१६॥

सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनांतरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ॥१७॥

धन्वंतरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वंद्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनांताद् बलो गणात् क्रोधवशादहींद्रः ॥१८॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखंडगणात् प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ॥१९॥

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविंद आसंगवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यंदिने विष्णुररींद्रपाणिः ॥२०॥

देवोस्पराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोस्वतु पद्मनाभः ॥२१॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशो‌உसिधरो जनार्दनः।
दामोदरो‌உव्यादनुसंध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥२२॥

चक्रं युगांतानलतिग्मनेमि भ्रमत् समंताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दंदग्धि दंदग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥२३॥

गदे‌உशनिस्पर्शनविस्फुलिंगे निष्पिंढि निष्पिंढ्यजितप्रियासि।
कूष्मांडवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥२४॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेंद्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनो‌உरेर्हृदयानि कंपयन् ॥२५॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिंधि छिंधि।
चर्मञ्छतचंद्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥२६॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्यों‌உहोभ्य एव वा ॥२७॥

सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयांतु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ॥२८॥

गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छंदोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥२९॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिंद्रियमनः प्राणान् पांतु पार्षदभूषणाः ॥३०॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यांतु नाशमुपाद्रवाः ॥३१॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिंगाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥३२॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥३३

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समंतादंतर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयंल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥३४॥

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यंजसा येन दंशितो‌உसुरयूथपान् ॥३५॥

एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ॥३६॥

न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ॥३७॥

इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वांगं जहौ स मरूधन्वनि ॥३८॥

तस्योपरि विमानेन गंधर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः ॥३९॥

गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ॥४०॥

॥श्रीशुक उवाच॥
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यंति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ॥४१॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य‌உमृधेसुरान् ॥४२॥

॥इति श्रीनारायणकवचं संपूर्णम्॥

राम स्तुति


श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम् ।
नवकंज लोचन, कंज मुख, कर कंज, पद कन्जारुणम ॥1॥

कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमी जनक सुतावरम् ॥2॥

भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम् ।
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ नन्दनम ॥3॥

सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर-धुषणं ॥4॥

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनम् ।
मम् हृदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम् ॥5॥

मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरों ।
करुना निधान सुजान सिलु सनेहु जानत रावरो ॥6॥

एही भांती गौरी असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली ।
तुलसी भवानी पूजि पूनि पूनि मुदित मन मंदिर चली ॥7॥

दोहा- जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

श्री नारायण स्रोत


करुणापारावार वरुणालयगंभीर नारायण ॥ १ ॥

घननीरदसंकाश कृतकलिकल्मषनाशन नारायण ॥ २ ॥

यमुनातीरविहार धृतकौस्तुभमणिहार नारायण ॥ ३ ॥

पीतांबरपरिधान सुरकल्याणनिधान नारायण ॥ ४ ॥

मंजुलगुंजाभूष मायामानुषवेष नारायण ॥ ५ ॥

राधाधरमधुरसिक रजनीकरकुलतिलक नारायण ॥ ६ ॥

मुरलीगानविनोद वेदस्तुतभूपाद नारायण ॥ ७ ॥

बर्हिनिबर्हापीड नटनाटकफणिक्रीड नारायण ॥ ८ ॥

वारिजभूषाभरण राजीवरुक्मिणीरमण नारायण ॥ ९ ॥

जलरुहदलनिभनेत्र जगदारंभकसूत्र नारायण ॥ १० ॥

पातकरजनीसंहार करुणालय मामुद्धर नारायण ॥ ११ ॥

अघ बकहयकंसारे केशव कृष्ण मुरारे नारायण ॥ १२ ॥

हाटकनिभपीतांबर अभयं कुरु मे मावर नारायण ॥ १३ ॥

दशरथराजकुमार दानवमदसंहार नारायण ॥ १४ ॥

गोवर्धनगिरि रमण गोपीमानसहरण नारायण ॥ १५ ॥

सरयुतीरविहार सज्जन‌ऋषिमंदार नारायण ॥ १६ ॥

विश्वामित्रमखत्र विविधवरानुचरित्र नारायण ॥ १७ ॥

ध्वजवज्रांकुशपाद धरणीसुतसहमोद नारायण ॥ १८ ॥

जनकसुताप्रतिपाल जय जय संस्मृतिलील नारायण ॥ १९ ॥

दशरथवाग्धृतिभार दंडक वनसंचार नारायण ॥ २० ॥

मुष्टिकचाणूरसंहार मुनिमानसविहार नारायण ॥ २१ ॥

वालिविनिग्रहशौर्य वरसुग्रीवहितार्य नारायण ॥ २२ ॥

मां मुरलीकर धीवर पालय पालय श्रीधर नारायण ॥ २३ ॥

जलनिधि बंधन धीर रावणकंठविदार नारायण ॥ २४ ॥

ताटकमर्दन राम नटगुणविविध सुराम नारायण ॥ २५ ॥

गौतमपत्नीपूजन करुणाघनावलोकन नारायण ॥ २६ ॥

संभ्रमसीताहार साकेतपुरविहार नारायण ॥ २७ ॥

अचलोद्धृतचंचत्कर भक्तानुग्रहतत्पर नारायण ॥ २८ ॥

नैगमगानविनोद रक्षित सुप्रह्लाद नारायण ॥ २९ ॥

भारत यतवरशंकर नामामृतमखिलांतर नारायण ॥ ३० ॥

स्रोत

श्री सूक्त


।।श्री सूक्त।।

ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।

तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।

अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।

कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।

आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।

उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे।।

क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।

गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।।

मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।

कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।

तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।

कनकधारा स्रोत


अंग हरे: पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृंगांगनेव मुकुलाभरणं तमालम ।
अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदाsस्तु मम मंगलदेवताया: ।।1।।

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारे: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि ।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवाया: ।।2।।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदान दक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोsपि ।
ईषन्निषीदतु मयि क्षण मीक्षणार्ध मिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दिराया: ।।3।।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दमनिमेषमनंगतन्त्रम ।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रम भूत्यै भवेन्मम भुजंगशयांगनाया: ।।4।।

बाह्यन्तरे मुरजित: श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।
कामप्रदा भगवतोsपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयाया: ।।5।।

कालाम्बुदालि ललितोरसि कैटभारे र्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव ।
मातु: समस्तजगतां महनीय मूर्तिर्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया: ।।6।।

प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन ।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धम मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया: ।।7।।

दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा-मस्मिन्नकिंचन विहंगशिशौ विषण्णे ।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाह: ।।8।।

इष्टा विशिष्टमतयोsपि यया दयार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते ।
दृष्टि: प्रह्रष्टमकमलोदरदीप्तिरिष्टाम पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टराया: ।।9।।

गीर्देवतेति गरुड़ध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति ।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैक गुरोस्तरुण्यै ।।10।।

श्रुत्यै नमोsस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोsस्तु रमणीयगुणार्णवायै ।
शक्त्यै नमोsस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्टयै नमोsस्तु पुरुषोत्तम वल्लभायै ।।11।।

नमोsस्तु नालीकनिभाननायै नमोsस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै ।
नमोsस्तु सोमामृतसोदरायै नमोsस्तु नारायणवल्लभायै ।।12।।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ।।13।।

यत्कटाक्षसमुपासनाविधि: सेवकस्य सकलार्थसम्पद: ।
सन्तनोति वचनांगमानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ।।14।।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम ।।15।।

दिग्घस्तिभि: कनककुम्भमुखाव सृष्टस्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुतांगीम ।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धि पुत्रीम ।।16।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरंगितै रपांगै: ।
अवलोकय मामकिंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया: ।।17।।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम ।
गुणाधिका गुरुतर भाग्यभागिनो ते भुवि बुधभाविताशया: ।।18।।

बुधवार, 2 अगस्त 2017

होली पूजन की विधि


होली से एक दिल पहले होलिका दहन किया जाता है। इस दिन भक्त प्रह्लाद को याद करते हुए एक खास पूजा रखी जाती है। घर के सभी लोग खास पूजा विधि के साथ इस पूजा में शामिल होकर सुख समृद्धि की कामना करते हैं। इस पूजा की तैयारी सभी घरों में दो दिन पहले ही शुरू हो जाती है। लेकिन पूजा से पहले इसका शुभ मुहूर्त और विधि जानना भी बेहद जरूरी है।

भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि, होलिका दहन के लिये उत्तम मानी जाती है। यदि भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा का अभाव हो परन्तु भद्रा मध्य रात्रि से पहले ही समाप्त हो जाए तो प्रदोष के पश्चात जब भद्रा समाप्त हो तब होलिका दहन करना चाहिये। यदि भद्रा मध्य रात्रि तक व्याप्त हो तो ऐसी परिस्थिति में भद्रा पूँछ के दौरान होलिका दहन किया जा सकता है। परन्तु भद्रा मुख में होलिका दहन कदाचित नहीं करना चाहिये।

पूजन सामग्री: रोली, कच्चा सूत, चावल, फूल, साबूत हल्दी, मूंग, बताशे, नारियल, बड़कुले (भरभोलिए) आदि।

किसी साफ और स्वच्छ जगह गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मण्डल बनाना चाहिए और उसे रंगीन अक्षतों से अलंकृत कर पवित्र गंगा जल से पहले उस स्थान को शुद्ध कर लेना चाहिए। ध्यान रखे की पूजन करते समय आपका मुख उत्तर या पूर्व दिशा में हो ।

सूर्यास्त के बाद प्रदोष काल में होलिका में सही मुहर्त पर अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी जाती है। ध्यान रहे यह समय भद्रा के बाद का ही हो। अग्नि प्रज्ज्वलित होते ही डंडे को बाहर निकाल लिया जाता है। यह डंडा भक्त प्रहलाद का प्रतीक है। इसके पश्चात नरसिंह भगवान का स्मरण करते हुए उन्हें रोली, मौली, अक्षत, पुष्प अर्पित करें। इसी प्रकार भक्त प्रह्लाद को स्मरण करते हुए उन्हें रोली, मौली, अक्षत, पुष्प अर्पित करें।

इसके पश्चात् हाथ में असद, फूल, सुपारी, पैसा लेकर पूजन कर जल के साथ होलिका के पास छोड़ दें और अक्षत, चंदन, रोली, हल्दी, गुलाल, फूल तथा गूलरी की माला पहनाएं। विधि पंचोपचार की हो तो सबसे अच्छी है। पूजा में सप्तधान्य की पूजा की जाती है जो की गेहूं, उड़द, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर। होलिका के समय नयी फसले आने लग जाती है अत: इन्हे भी पूजन में विशेष स्थान दिया जाता है। होलिका की लपटों से इसे सेक कर घर के सदस्य खाते हैं और धन धन और समृधि की विनती की जाती है। होलिका के चारो तरफ तीन या सात परिक्रमा करे और साथ में कच्चे सूत को लपेटे।

होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए–

“अहकूटा भयत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:

अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम:”

इस मंत्र का उच्चारण एक माला, तीन माला या फिर पांच माला विषम संख्या के रुप में करना चाहिए.

दीपावली पूजन विधि


दीवाली पूजा हेतु पूजन सामग्री 

दीवाली पूजा के सामान की लगभग सभी चीजें घर में ही मिल जाती हैं। कुछ अतिरिक्त चीजों को बाहर से लाया जा सकता है। ये वस्तुएं हैं- लक्ष्मी, सरस्वती व गणेश जी का चित्र या प्रतिमा, रोली, कुमकुम, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, धूप, कपूर, अगरबत्तियां, मिट्टी तथा तांबे के दीपक, रुई, कलावा (मौलि), नारियल, शहद, दही, गंगाजल, गुड़, धनिया, फल, फूल, जौ, गेहूँ, दूर्वा, चंदन, सिंदूर, घृत, पंचामृत, दूध, मेवे, खील, बताशे, गंगाजल, यज्ञोपवीत (जनेऊ), श्वेत वस्त्र, इत्र, चौकी, कलश, कमल गट्टे की माला, शंख, आसन, थाली, चांदी का सिक्का, देवताओं के प्रसाद हेतु मिष्ठान्न (बिना वर्क का)

दीवाली की पूजा में सबसे पहले एक चौकी पर सफेद वस्त्र बिछा कर उस पर मां लक्ष्मी, सरस्वती व गणेश जी का चित्र या प्रतिमा को विराजमान करें। इसके बाद हाथ में पूजा के जलपात्र से थोड़ा-सा जल लेकर उसे प्रतिमा के ऊपर निम्न मंत्र पढ़ते हुए छिड़कें। बाद में इसी तरह से स्वयं को तथा अपने पूजा के आसन को भी इसी तरह जल छिड़ककर पवित्र कर लें।

ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: वाह्याभंतर: शुचि:।।
इसके बाद मां पृथ्वी को प्रणाम करके निम्न मंत्र बोलें तथा उनसे क्षमा प्रार्थना करते हुए अपने आसन पर विराजमान हों

पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥

ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌॥ पृथिव्यै नमः आधारशक्तये नमः

इसके बाद ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः कहते हुए गंगाजल का आचमन करें

इस पूरी प्रक्रिया के बाद मन को शांत कर आंखें बंद करें तथा मां को मन ही मन प्रणाम करें। इसके बाद हाथ में जल लेकर पूजा का संकल्प करें। संकल्प के लिए हाथ में अक्षत (चावल), पुष्प और जल ले लीजिए। साथ में एक रूपए (या यथासंभव धन) का सिक्का भी ले लें। इन सब को हाथ में लेकर संकल्प करें कि मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान व समय पर मां लक्ष्मी, सरस्वती तथा गणेशजी की पूजा करने जा रहा हूं, जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हों।

इसके बाद सबसे पहले भगवान गणेशजी व गौरी का पूजन कीजिए। तत्पश्चात कलश पूजन करें फिर नवग्रहों का पूजन कीजिए। हाथ में अक्षत और पुष्प ले लीजिए और नवग्रह स्तोत्र बोलिए। इसके बाद भगवती षोडश मातृकाओं का पूजन किया जाता है। इन सभी के पूजन के बाद 16 मातृकाओं को गंध, अक्षत व पुष्प प्रदान करते हुए पूजन करें। पूरी प्रक्रिया मौलि लेकर गणपति, माता लक्ष्मी व सरस्वती को अर्पण कर और स्वयं के हाथ पर भी बंधवा लें। अब सभी देवी-देवताओं के तिलक लगाकर स्वयं को भी तिलक लगवाएं। इसके बाद मां महालक्ष्मी की पूजा आरंभ करें।

मां को रिझाने के लिए करें श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त व कनकधारा स्रोत का पाठ

सबसे पहले भगवान गणेशजी, लक्ष्मीजी का पूजन करें। उनकी प्रतिमा के आगे 7, 11 अथवा 21 दीपक जलाएं तथा मां को श्रृंगार सामग्री अर्पण करें। मां को भोग लगा कर उनकी आरती करें। श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त व कनकधारा स्रोत का पाठ करें। इस तरह से आपकी पूजा पूर्ण होती है।
क्षमा-प्रार्थना करें

पूजा पूर्ण होने के बाद मां से जाने-अनजाने हुए सभी भूलों के लिए क्षमा-प्रार्थना करें। उन्हें कहें-

मां न मैं आह्वान करना जानता हूँ, न विसर्जन करना। पूजा-कर्म भी मैं नहीं जानता। हे परमेश्वरि! मुझे क्षमा करो। मन्त्र, क्रिया और भक्ति से रहित जो कुछ पूजा मैंने की है, हे देवि! वह मेरी पूजा सम्पूर्ण हो। यथा-सम्भव प्राप्त उपचार-वस्तुओं से मैंने जो यह पूजन किया है, उससे आप भगवती श्रीलक्ष्मी प्रसन्न हों।

अहोई अष्टमी की व्रत कथा



एक साहूकार के सात बेटे, सात बहुएं व एक बेटी थी। दीपावली से पहले कार्तिक बदी अष्टमी को सातों बहुएं अपनी इकलौती ननद के साथ जंगल में खदान में मिट्टी खोद रही थीं कि मिट्टी खोदते समय ननद के हाथ से सेई का बच्चा मर गया। स्याहू (सेई) माता बोली कि तुमने मेरे बच्चे को मारा है मैं तुम्हारी कोख को बांधूगी। ननद ने अपनी भाभियों से कहा कि तुम सब में से कोई मेरी जगह अपनी कोख बंधवा ले। सबने मना कर दिया परंतु सबसे छोटी भाभी ने सास की नाराजगी को ध्यान में रखते हुए अपनी कोख बंधवा ली। इसके बाद जब भी उसे पुत्र होता वह सात दिनों बाद ही मर जाता। एक दिन उसने एक पंडित जी को बुलाकर इसका कारण पूछा, तब पंडित जी ने कहा कि आप सुरही गाय की पूजा किया करो क्योंकि सुरही गाय स्याऊ माता की भायली है। वह तेरी कोख छोड़े तभी तेरा बच्चा जीवित रहेगा।

इसके बाद बहू प्रात: काल उठकर चुपचाप सुरही गाय के नीचे सफाई आदि कर आती। गौ माता बोली कि आजकल कौन मेरी सेवा कर रहा है उसने देखा कि साहूकार के बेटे की बहू सफाई कर रही है। इस पर खुश होकर गौ माता ने उसे वर मांगने को कहा। वह बोली स्याऊ माता आपकी भायली है, उसने मेरी कोख बांध रखी है आप वह खुलवा दो। तब गौ माता उसे साथ लेकर समुद्र पार अपनी भायली के पास चल पड़ी। रास्ते में कड़ी धूप में आराम करने के लिए वे एक पेड़ के नीचे बैठ गईं। तभी वहां एक सांप आया और पेड़ पर गरुड़ पंखनी (पक्षी) के  घोंसले में उसके बच्चे को डंसने लगा तो साहूकार की बहू ने सांप को मार कर बच्चे को बचा लिया। जब गरुड़ पंखनी ने यह देखा तो उसने बहू से कुछ मांगने को कहा। बहू ने कहा कि सात समुद्र पार स्याऊ माता रहती है, मुझे उनके पास पहुंचा दो। गरुड़ पंखनी ने दोनों को अपनी पीठ पर बिठाकर स्याऊ माता के पास पहुंचा दिया। स्याऊ माता उन्हें देखकर बोली, ‘‘अरे बहन, तुम यहां कैसे, मेरे सिर में बहुत जुएं पड़ गई हैं।’’

तब सुरही गाय के कहने पर साहूकार की बहू ने सलाई से उसकी जुएं निकाल दीं। इस पर स्याऊ माता ने खुश होकर कहा, ‘‘तेरे सात बेटे और बहू होंगी।’’

वह बोली, ‘‘मेरी कोख तो तुम्हारे पास बंद पड़ी है, बेटे कहां से पैदा होंगे।’’

तब स्याऊ माता बोली, ‘‘तू घर जा, वहां तुझे तेरे सातों बेटे अपनी पत्नियों के साथ मिलेंगे। तुम घर जाकर  उद्यापन करना, सात अहोई बनाकर सात कढ़ाई (हलवा-पूरी) करना।’’

जब बहू लौट कर घर आई तो अपने बेटों-बहुओं को देखकर वह खूब खुश हुई और उद्यापन भी किया। जिस प्रकार स्याऊ माता ने साहूकार की बहू को उसकी खुशियां लौटा दीं, उसी तरह कथा सुनने वाले तथा कहने वाले पर भी स्याऊ माता अपना आशीर्वाद बनाए रखे|

अहोई अष्टमी की पूजा विधि


व्रत के दिन प्रात: उठकर स्नान करें और पूजा पाठ करके संकल्प करें कि पुत्र की लम्बी आयु एवं सुखमय जीवन हेतु मैं अहोई माता का व्रत कर रही हूं। अहोई माता मेरे पुत्रों को दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी रखें। अनहोनी को होनी बनाने वाली माता देवी पार्वती हैं इसलिए माता पर्वती की पूजा करें। अहोई माता की पूजा के लिए गेरू से दीवाल पर अहोई माता का चित्र बनायें और साथ ही स्याहु और उसके सात पुत्रों का चित्र बनायें। उनके सामने चावल की ढीरी (कटोरी), मूली, सिंघाड़े रखते हैं और सुबह दिया रखकर कहानी कही जाती है। कहानी कहते समय जो चावल हाथ में लिए जाते हैं, उन्हें साड़ी/ सूट के दुप्पटे में बाँध लेते हैं। सुबह पूजा करते समय जि गर (लोटे में पानी और उसके ऊपर करवे में पानी रखते हैं।) यह करवा, करवा चौथ में इस्तेमाल हुआ होना चाहिए. इस करवे का पानी दिवाली के दिन पूरे घर में छिड़का जाता है। संध्या काल में इन चित्रों की पूजा करें।

पके खाने में चौदह पूरी और आठ पूयों का भोग अहोई माता को लगाया जाता है। उस दिन बयाना निकाला जाता है - बायने मैं चौदह पूरी या मठरी या काजू होते हैं। लोटे का पानी शाम को चावल के साथ तारों को आर्ध किया जाता है। शाम को माता के सामने दिया जलाते हैं और पूजा का सारा सामान (पूरी, मूली, सिंघाड़े, पूए, चावल और पका खाना) पंडित जी को दिया जाता है। अहोई माता का कैलंडर दिवाली तक लगा रहना चाहिए| अहोई पूजा में एक अन्य विधान यह भी है कि चांदी की अहोई बनाई जाती है जिसे स्याहु कहते हैं। इस स्याहु की पूजा रोली, अक्षत, दूध व भात से की जाती है। पूजा चाहे आप जिस विधि से करें लेकिन दोनों में ही पूजा के लिए एक कलश में जल भर कर रख लें। पूजा के बाद अहोई माता की कथा सुने और सुनाएं।

पूजा के पश्चात सासु मां के पैर छूएं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। इसके पश्चात व्रती अन्न जल ग्रहण करें।

अगर घर में कोई नया सदस्य आता है, तो उसके नाम का अहोई माता का कैलंडर उस साल लगाना चाहिए. यह कैलंडर, जहाँ हमेशा का अहोई माता का कैलेंडर लगाया जाता है, उसके लेफ्ट में लगते हैं। जब बच्चा होता है, उसी साल कुण्डवारा भरा जाता है। कुण्डवारे में चौदह कटोरियाँ/ सर्रियाँ, एक लोटा, एक जोड़ी कपडे, एक रुमाल रखते हैं। हर कटोरी में चार बादाम और एक छुवारा (टोटल पांच) रखते हैं और लोटे में पांच बादाम, दो छुवारे और रुमाल रखकर पूजा करते हैं। यह सारा सामान ननद को जाता है।

करवा चौथ व्रत पूजा विधि


करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान का पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब ४ बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है।

ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियाँ करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं। शास्त्रों के अनुसार यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।

यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक लगातार हर वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अतः सुहागिन स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षार्थ इस व्रत का सतत पालन करें।

विधि:

कार्तिक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी अर्थात उस चतुर्थी की रात्रि को जिसमें चंद्रमा दिखाई देने वाला है, उस दिन प्रातः स्नान करके अपने सुहाग (पति) की आयु, आरोग्य, सौभाग्य का संकल्प लेकर दिनभर निराहार रहें।

उस दिन भगवान शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा का पूजन करें। पूजन करने के लिए बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर उपरोक्त वर्णित सभी देवों को स्थापित करें।

शुद्ध घी में आटे को सेंककर उसमें शक्कर अथवा खांड मिलाकर मोदक (लड्डू) नैवेद्य हेतु बनाएँ।

काली मिट्टी में शक्कर की चासनी मिलाकर उस मिट्टी से तैयार किए गए मिट्टी के करवे अथवा तांबे के बने हुए करवे। 10 अथवा 13 करवे अपनी सामर्थ्य अनुसार रखें।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।

बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी पर शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा की स्थापना करें। मूर्ति के अभाव में सुपारी पर नाड़ा बाँधकर देवता की भावना करके स्थापित करें। पश्चात यथाशक्ति देवों का पूजन करें।

पूजन हेतु निम्न मंत्र बोलें
-
'ॐ शिवायै नमः' से पार्वती का, 'ॐ नमः शिवाय' से शिव का, 'ॐ षण्मुखाय नमः' से स्वामी कार्तिकेय का, 'ॐ गणेशाय नमः' से गणेश का तथा 'ॐ सोमाय नमः' से चंद्रमा का पूजन करें।

करवों में लड्डू का नैवेद्य रखकर नैवेद्य अर्पित करें। एक लोटा, एक वस्त्र व एक विशेष करवा दक्षिणा के रूप में अर्पित कर पूजन समापन करें। करवा चौथ व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुनें।

सायंकाल चंद्रमा के उदित हो जाने पर चंद्रमा का पूजन कर अर्घ्य प्रदान करें। इसके पश्चात ब्राह्मण, सुहागिन स्त्रियों व पति के माता-पिता को भोजन कराएँ। भोजन के पश्चात ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दें।

पति की माता (अर्थात अपनी सासूजी) को उपरोक्त रूप से अर्पित एक लोटा, वस्त्र व विशेष करवा भेंट कर आशीर्वाद लें। यदि वे जीवित न हों तो उनके तुल्य किसी अन्य स्त्री को भेंट करें। इसके पश्चात स्वयं व परिवार के अन्य सदस्य भोजन करें।




करवा चौथ व्रत कथा




कथा:

बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी।

शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है।

सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो।

इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है।

वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है।

उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है।

सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है।

एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।

इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है।

सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।

अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।

ज्ञान सुधा



*चरित्र एक वृक्ष है, सम्मान एक छाया। हम हमेशा छाया की सोचते हैं, लेकिन छाया तो तब मिलेगी जब वृक्ष अच्छा हो।*



     

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

शिव स्तुति


शिव स्तुति करते समय प्रभु के हर रूप का ध्यान करें...

जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करूणाकर करतार हरे।
जय कैलाशी, जय अविनाशी, सुखराशी सुखसार हरे।
जय शशिशेखर, जय डमरूधर, जय जय प्रेमागार हरे।
जय त्रिपुरारी, जय मदहारी, नित्य अनन्त अपार हरे।
निर्गुण जय जय सगुण अनामय निराकार साकार हरे।
पारवती पति हर-हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।1।।

जय रामेश्वर, जय नागेश्वर, वैद्यनाथ, केदार हरे।
मल्लिकार्जुन, सोमनाथ, जय महाकार, ओंकार हरे।
जय त्रयम्बकेश्वर, जय भुवनेश्वर, भीमेश्वर, जगतार हरे।
काशीपति श्री विश्वनाथ जय मंगलमय अधहार हरे।
नीलकंठ, जय भूतनाथ, जय मृतुंजय अविकार हरे।
पारवती पति हर-हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।2।।

भोलानाथ कृपालु दयामय अवढर दानी शिवयोगी।
निमिष मात्र में देते है नवनिधि मनमानी शिवयोगी।
सरल हृदय अति करूणासागर अकथ कहानी शिवयोगी।
भक्तों पर सर्वस्व लुटाकर बने मसानी शिवयोगी।
स्वयं अकिंचन जन मन रंजन पर शिव परम उदार हरे।
पारवती पति हर-हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।3।।

आशुतोष इस मोहमयी निद्रा मुझे जगा देना।
विषय वेदना से विषयों की मायाधीश छुड़ा देना।
रूप सुधा की एक बूद से जीवन मुक्त बना देना।
दिव्य ज्ञान भण्डार युगल चरणों की लगन लगा देना।
एक बार इस मन मन्दिर में कीजे पद संचार हरे।
पारवती पति हर-हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।4।।

दानी हो दो भिक्षा में अपनी अनपायनी भक्ति विभो।
शक्तिमान हो दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो।
त्यागी हो दो इस असार संसारपूर्ण वैराग्य प्रभो।
परम पिता हो दो तुम अपने चरणों में अनुराण प्रभो।
स्वामी हो निज सेवक की सुन लीजे करूण पुकार हरे।
पारवती पति हर-हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।5।।

तुम बिन व्यकुल हूं प्राणेश्वर आ जाओ भगवन्त हरे।
चरण कमल की बॉह गही है उमा रमण प्रियकांत हरें।
विरह व्यथित हूं दीन दुखी हूं दीन दयाल अनन्त हरे।
आओ तुम मेरे हो जाओ आ जाओ श्रीमंत हरे।
मेरी इस दयनीय दशा पर कुछ तो करो विचार हरे।
पारवती पति हर-हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।6।।

जय महेश जय जय भवेश जय आदि देव महादेव विभो।
किस मुख से हे गुणातीत प्रभुत तव अपार गुण वर्णन हो।
जय भव तारक दारक हारक पातक तारक शिव शम्भो।
दीनन दुख हर सर्व सुखाकर प्रेम सुधाकर की जय हो।
पार लगा दो भवसागर से बनकर करूणा धार हरे।
पारवती पति हर-हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।7।।

जय मनभावन जय अतिपावन शोक नसावन शिवशम्भो।
विपति विदारण अधम अधारण सत्य सनातन शिवशम्भो।
वाहन वृहस्पति नाग विभूषण धवन भस्म तन शिवशम्भो।
मदन करन कर पाप हरन धन चरण मनन धन शिवशम्भो।
विश्वन विश्वरूप प्रलयंकर जग के मूलाधार हरे।
पारवती पति हर हर शम्भो पाहि-पाहि दातार हरे।।8।।

शनिदेव जी की आरती


जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय.॥

श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय.॥

क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥ जय.॥

मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥ जय.॥

देव दनुज ऋषि मुनि सुमरिन नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥जय.॥

सांई बाबा की आरती


आरती श्री साई गुरुवर की, परमानंद सदा रघुवर की |
जाकी कृपा विपुल सुखकारी, दु:ख शोक संकट भयहारी |
शिरडी में अवतार रचाया, चमत्कार से तत्व दिखाया |
कितने भक्त चरण पर आये, वे सुख शंति चिंतन पाये |
भाव धरे जो मन में जैसा, पावत अनुभव वो ही वैसा |
गुरु की उदी लगावे तन को, समाधान लाभत उस मन को |
साई नाम सदा जो गावें, सो फल जग में शाश्वत पावें |
गुरुवासर करि पूजा सेव, उस पर कृपा करत गुरु देवा |
राम कृष्ण हनुमान रुप में, दे दर्शन जो जानत मन में |
विविध धर्म के सेवक आतें, दर्शन कर इच्छित फल पातें |
जै बोलो साई बाबा की, जै बोलो अवधुत गुरु की |
साई दास आरती को गावे, घर में बसि सुख मंगल पावे |

आरती कुंजबिहारी जी की


आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥

गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला ।
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला ।

गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली;
भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक, चंद्र सी झलक;
ललित छवि श्यामा प्यारी की ॥ श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं ।
गगन सों सुमन रासि बरसै;
बजे मुरचंग, मधुर मिरदंग, ग्वालिन संग;
अतुल रति गोप कुमारी की ॥ श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा ।
स्मरन ते होत मोह भंगा;
बसी सिव सीस, जटा के बीच, हरै अघ कीच;
चरन छवि श्रीबनवारी की ॥ श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही वृंदावन बेनू ।
चहुं दिसि गोपि ग्वाल धेनू;
हंसत मृदु मंद,चांदनी चंद, कटत भव फंद;
टेर सुन दीन भिखारी की ॥ श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

शनिवार, 29 जुलाई 2017

शाकम्भरी देवी जी की आरती


हरी श्री शाकम्भरी अम्बा जी की आरती कीजो ।

ऐसा अदभुत रुप हृदय धर लीजो,
शताक्षी दयालु की आरती कीजो ।।

तुम परिपूर्ण आदि भावानी माँ,
सब घट तुम आप बखानी माँ ।।

शाकम्भर अम्बाजी की आरती कीजो
तुम्ही हो शाकम्भर, तुम ही हो शताक्षी माँ
शिवमूर्ति माया प्रकाशी माँ, श्री शाकम्भर
नित जो नर नारी अम्बे आरती गावे माँ
इच्छा पूरण कीजो, शाकम्भर दर्शन पावे माँ,
श्री शाकम्भर ...

जो नर आरती पढे पढावे माँ
जो नर आरती सुने सुनावे माँ
बसे बैकुण्ड शाकम्भर दर्शन पावे, श्री शाकम्भर....

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

गुरुवार/वीरवार व्रत की विधि


गुरुवार/वीरवार व्रत की विधि:

वीडियो देखें: Click करें

गुरुवार की पूजा विधि-विधान के अनुसार की जानी चाहिए. व्रत वाले दिन सुबह उठकर बृहस्पति देव का पूजन करना चाहिए. बृहस्पति देव का पूजन पीली वस्तुएं, पीले फूल, चने की दाल, मुनक्का, पीली मिठाई, पीले चावल और हल्दी चढ़ाकर किया जाता है. इस व्रत में केले के पेड़ की का पूजा की जाती है. कथा और पूजन के समय मन, कर्म और वचन से शुद्ध होकर मनोकामना पूर्ति के लिए बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करनी चाहिए.

जल में हल्दी डालकर केले के पेड़ पर चढ़ाएं. केले की जड़ में चने की दाल और मुनक्का चढ़ाएं साथ ही दीपक जलाकर पेड़ की आरती उतारें. दिन में एक समय ही भोजन करें. खाने में चने की दाल या पीली चीजें खाएं, नमक न खा‌एं, पीले वस्त्र पहनें, पीले फलों का इस्तेमाल करें. पूजन के बाद भगवान बृहस्पति की कथा सुननी चाहिए.

गुरुवार/वीरवार व्रत की कथा


गुरुवार को भगवान बृहस्पति की पूजा का विधान है. इस पूजा से परिवार में सुख-शांति रहती है. जल्द विवाह के लिए भी गुरुवार का व्रत किया जाता है.


गुरुवार/वीरवार व्रत की कथा:

प्राचीन काल की बात है. किसी राज्य में एक बड़ा प्रतापी और दानी राजा राज करता था. वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं भूखे और गरीबों को दान देकर पुण्य प्राप्त करता था, परंतु यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी. वह न तो व्रत करती थी, न ही किसी को एक भी पैसा दान में देती थी और राजा को भी ऐसा करने से मना करती थी.

एक समय की बात है, राजा शिकार खेलने के लिए वन चले गए थे. घर पर रानी और दासी थी. उसी समय गुरु बृहस्पतिदेव साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए. साधु ने जब रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज, मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं. आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे कि सारा धन नष्ट हो जाए और मैं आराम से रह सकूं.

बृहस्पतिदेव ने कहा, हे देवी, तुम बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दुखी होता है. अगर अधिक धन है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, कुंवारी कन्याओं का विवाह कराओ, विद्यालय और बाग-बगीचे का निर्माण कराओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें. परंतु साधु की इन बातों से रानी को खुशी नहीं हुई. उसने कहा कि मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं है, जिसे मैं दान दूं और जिसे संभालने में मेरा सारा समय नष्ट हो जाए.

तब साधु ने कहा- यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो मैं जैसा तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना. गुरुवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिटटी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना. इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जाएगा. इतना कहकर साधु रुपी बृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए.

साधु के अनुसार कही बातों को पूरा करते हुए रानी को केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई. भोजन के लिए राजा का परिवार तरसने लगा. तब एक दिन राजा ने रानी से बोला कि हे रानी, तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूं, क्योंकि यहां पर सभी लोग मुझे जानते हैं. इसलिए मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता. ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया. वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता. इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा. इधर, राजा के परदेश जाते ही रानी और दासी दुखी रहने लगी.

एक बार जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा- हे दासी, पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है. वह बड़ी धनवान है. तू उसके पास जा और कुछ ले आ, ताकि थोड़ी-बहुत गुजर-बसर हो जाए. दासी रानी की बहन के पास गई.

उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी. दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया. जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई और उसे क्रोध भी आया. दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी. सुनकर रानी ने अपने भाग्य को कोसा. उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परंतु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी.

कथा सुनकर और पूजन समाप्त करके वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- हे बहन, मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी. तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परंतु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली. कहो दासी क्यों गई थी.

रानी बोली- बहन, तुमसे क्या छिपाऊं, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं था. ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई. उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने तक की बात अपनी बहन को विस्तारपूर्वक सूना दी. रानी की बहन बोली- देखो बहन, भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं. देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो.

पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया. यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई. दासी रानी से कहने लगी- हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सकें. तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा.

उसकी बहन ने बताया, बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें. इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं. व्रत और पूजन विधि बताकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई.

सात दिन के बाद जब गुरुवार आया, तो रानी और दासी ने व्रत रखा. घुड़साल में जाकर चना और गुड़ लेकर आईं. फिर उससे केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया. अब पीला भोजन कहां से आए इस बात को लेकर दोनों बहुत दुखी थे. चूंकि उन्होंने व्रत रखा था इसलिए बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न थे. इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दासी को दे गए. भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया.

उसके बाद वे सभी गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगी. बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई, परंतु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी. तब दासी बोली- देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होता है.

रानी को समझाते हुए दासी कहती है कि बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराना चाहिए, और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पित्र प्रसन्न होंगे. दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी, जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा.

बृहस्पतिवार व्रत कथा के बाद श्रद्धा के साथ आरती की जानी चाहिए. इसके बाद प्रसाद बांटकर उसे ग्रहण करना चाहिए.

सोमवार व्रत की विधि:


सोमवार व्रत की विधि:

नारद पुराण के अनुसार सोमवार व्रत में व्यक्ति को प्रातः स्नान करके शिव जी को जल और बेल पत्र चढ़ाना चाहिए तथा शिव-गौरी की पूजा करनी चाहिए. शिव पूजन के बाद सोमवार व्रत कथा सुननी चाहिए. इसके बाद केवल एक समय ही भोजन करना चाहिए. साधारण रूप से सोमवार का व्रत दिन के तीसरे पहर तक होता है. मतलब शाम तक रखा जाता है. सोमवार व्रत तीन प्रकार का होता है प्रति सोमवार व्रत, सौम्य प्रदोष व्रत और सोलह सोमवार का व्रत. इन सभी व्रतों के लिए एक ही विधि होती है.

सोमवार शिवाजी के व्रत की कथा


सोमवार शिवाजी के व्रत की कथा:

एक समय की बात है, किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसके घर में धन की कोई कमी नहीं थी लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी इस कारण वह बहुत दुखी था. पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिव मंदिर जाकर भगवान शिव और पार्वती जी की पूजा करता था.

उसकी भक्ति देखकर एक दिन मां पार्वती प्रसन्न हो गईं और भगवान शिव से उस साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का आग्रह किया. पार्वती जी की इच्छा सुनकर भगवान शिव ने कहा कि 'हे पार्वती, इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों का फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है.' लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति का मान रखने के लिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा जताई.

माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके बालक की आयु केवल बारह वर्ष होगी. माता पार्वती और भगवान शिव की बातचीत को साहूकार सुन रहा था. उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही दुख. वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा.
कुछ समय के बाद साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ. जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया. साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन दिया और कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ और मार्ग में यज्ञ कराना. जहां भी यज्ञ कराओ वहां ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते हुए जाना.

दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी की ओर चल पड़े. रात में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था. लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था. राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए एक चाल सोची.

साहूकार के पुत्र को देखकर उसके मन में एक विचार आया. उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं. विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा. लड़के को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह कर दिया गया. लेकिन साहूकार का पुत्र ईमानदार था. उसे यह बात न्यायसंगत नहीं लगी.

उसने अवसर पाकर राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिखा कि 'तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है. मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं.'

जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई. राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया जिससे बारात वापस चली गई. दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया. जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसी दिन यज्ञ रखा गया. लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मामा ने कहा कि तुम अंदर जाकर सो जाओ.

शिवजी के वरदानुसार कुछ ही देर में उस बालक के प्राण निकल गए. मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप शुरू किया. संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे. पार्वती ने भगवान से कहा- स्वामी, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा. आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें.

जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया. अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है. लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव, आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे.

माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया. शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया. शिक्षा समाप्त करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया. दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था. उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया. उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी खातिरदारी की और अपनी पुत्री को विदा किया.

इधर साहूकार और उसकी पत्नी भूखे-प्यासे रहकर बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए. उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है. इसी प्रकार जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

पूर्णमासी व्रत की पूजन सामग्री व विधि


पूर्णमासी व्रत की पूजन सामग्री व विधि

पूजन सामग्री

दूध, दही, घी, शर्करा, गंगाजल, रोली, मौली, ताम्बूल, पूंगीफल, धूप, फूल (सफेद कनेर), यज्ञोपवीत, श्वेत वस्त्र, लाल वस्त्र, आक, बिल्व-पत्र, फूलमाला, धतूरा, बांस की टोकरी, आम के पत्ते, चावल, तिल, जौ, नारियल (पानी वाला), दीपक, ऋतुफल, अक्षत, नैवेद्य, कलष, पंचरंग, चन्दन, आटा, रेत, समिधा, कुश, आचार्य के लिए वस्त्र, शिव-पार्वती की स्वर्ण मूर्ति (अथवा पार्थिव प्रतिमा), दूब, आसन आदि।

पूजन विधि

पूजन करने वाला व्यक्ति प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर किसी पवित्र स्थान पर आटे से चैक पूर कर केले का मण्डप बनाकर शिव-पार्वती की प्रतिमा बनाकर स्थापित करे। तत्पश्चात् नवीन वस्त्र धारण कर आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर देशकालादि के उच्चारण के साथ हाथ में जल लेकर संकल्प करें। उसके बाद गणेश जी का आवाहन व पूजन करें। अनन्तर वरुणादि देवों का आवाहन करके कलश पूजन करें, चन्दन आदि समर्पित करें, कलश मुद्रा दिखाएं, घण्टा बजायें। गन्ध अक्षतादि द्वारा घण्टा एवं दीपक को नमस्कार करें। इसके बाद ‘ओम अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपि वा। यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः शुचिः’ इस मन्त्र द्वारा पूजन सामग्री एवं अपने ऊपर जल छिड़कें। इन्द्र आदि अष्टलोकपालों का आवाहन एवं पूजन करें। निम्नलिखित मन्त्र से शिव जी को स्नान करायें -

मन्दार मालाकुलिजालकायै, कपालमालाकिंतशेखराय। दिव्याम्बरायै च सरस्वती रेवापयोश्णीनर्मदाजलैः। स्नापितासि मया देवि तेन शान्ति पुरुष्व मे।

निम्नलिखित मन्त्र से पार्वती जी को स्नान करायें - नमो देव्यै महादेव्यै सततम नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता स्मताम्। इसके बाद पंचोपचार पूजन करें। चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप दिखाएं। फिर नैवेद्य चढ़ाकर आचमन करायें। अनन्तर हाथों के लिए उबटन समर्पण करें। फिर सुपारी अर्पण करें, दक्षिणा भेंट करें और नमस्कार करें। इसके बाद उत्तर की ओर निर्माल्य का विसर्जन करके महा अभिषेक करें। अनन्तर सुन्दर वस्त्र समर्पण करें, यज्ञोपवीत धारण करायें। चन्दन, अक्षत और सप्तधान्य समर्पित करें। फिर हल्दी, कुंकुम, मांगलिक सिंदूर आदि अर्पण करें। ताड़पत्र (भोजपत्र), कण्ठ की माला आदि समर्पण करें। सुगन्धित पुष्प चढ़ायें तथा धूप दें। दीप दिखाकर नैवेद्य समर्पित करें। फिर हाथ मुख धुलाने के लिए जल छोड़ें। चन्दन अर्पित करें। नारियल तथा ऋतुफल चढ़ायें। ताम्बूल सुपारी और दक्षिणा द्रव्य चढ़ायें। कपूर की आरती करें और पुष्पांजलि दें। सब प्रकार से पूजन करके कथा श्रवण करें।