मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

हनुमान साठिका



हनुमान साठिका

 ।। चौपाईयाँ ।।

 जय जय जय हनुमान अडंगी, महावीर विक्रम बजरंगी ।
जय कपीश जय पवन कुमारा, जय जगवंदन शील आगारा ॥
जय आदित्य अमर अविकारी, अरि मर्दन जय जय गिरधारी ।
अंजनि उदर जन्म तुम लीन्हा, जय जयकार देवतन कीन्हा ॥
बाजै दुन्दुभि गगन गम्भीरा, सुर मन हर्ष असुर मन पीरा ।
कपि के डर गढ़ लंक सकानी, छुटि बंदि देवतन जानी ॥
ॠषि समुह निकट चलि आये, पवनतनय के पद सिर नाये ।
बार बार अस्तुति करि नाना, निर्मल नाम धरा हनुमाना ॥
सकल ॠषिन मिलि अस मत ठाना, दीन बताय लाल फल खाना ।
सुनत वचन कपि मन हरषाना, रवि रथ उदय लाल फल जाना ॥
रथ समेत कपि कीनि अहारा, सुर्य बिना भयौ अति अंधियारा ।
विनय तुम्हार करैं अकुलाना, तब कपीरा की अस्तुति ठाना ॥
सकल लोक वृतांत सुनावा, चतुरानन तब रवि उगलावा ।
कहा बहोरि सुनो बलशीला, रामचन्द्र करि हैं बहु लीला ॥
तब तुम उन कर करव सहाई, अबहीं बराहु कानन में जाई
अस कहि विधि निज लोक सिधारा, मिले सखा संग पवनकुमारा ॥
खेलें खेल महा तरु तोरें, ढेर करें बहु पर्वत फोरें ।
जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई, गिरि समेत पातालहिं जाई ॥
कपि सुग्रीव बालि को त्रासा, निरख रहे राम धनु आसा ।
मिले राम तहाँ पवन कुमारा, अति आनन्द सप्रेम दुलारा ॥
मणि मुँदरी रघुपति सो पाई, सीता खोज चले सिर नाई ।
शत योजन जलनिधि विस्तारा, अगम अपार देवतन हारा ॥
जिमि सर गोखुर सरिस कपीशा, लांघि गये कपि कहि जगदीशा ।
सीता चरण सीस तिन नाये, अजर अमर के आशिष पाये ॥
रहे दनुज उपवन रखवारी, एक से एक महाभट भारी ।
जिन्हें मारि पुनि गयेउ कपीशा, दहेउ लंक कोप्यो भुजबीसा ॥
सिया बोध दैं पुनि फिर आये, रामचन्द्र के पद सिर नाये ।
मेरु उपारि आपु छिन माहीं, बाँधे सेतु निमिष इक माहीं ॥
लक्ष्मण शक्ति लागी जबहीं, राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ।
भवन समेत सुखेण लै आये, तुरत सजीवन को पुनि धाये ॥
मग महं कालनेमि कहं मारा, अमित सुभट निशिचर संहारा ।
आनि सजीवन गिरि समेता, धरि दीन्हीं जहं कृपानिकेता ॥
फनपति केर शोक हरि लीन्हा, वरषि सुमन सुर जय जय कीन्हा ।
अहिरावण हरि अनुज समेता, ले गयो तहां पाताल निकेता ॥
जहां रहे देवि अस्थाना , दीन चहै बलि काढ़ि कृपाणा ।
पवनतनय प्रभु कीन गुहारी, कटक समेत निशाचर मारी ॥
रीछ कीशपति सबै बहोरी, राम लखन कीने इक ठोरी ।
सब देवतन की बंदि छुड़ाये ,सो कीरति मुनि नारद गाये ॥
अक्षयकुमार दनुज बलवाना, सानकेतु कहं सब जगजाना ।
कुम्भकरण रावण कर भाई, ताहि निपात कीन्ह कपिराई ॥
मेघनाद पर शक्ति मारा, पवनतनय तब सों बरियारा ।
रहा तनय नारान्तक जाना, पल महं ताहि हते हनुमाना ॥
जहं लगि मान दनुज कर पावा , पवनतनय सब मारि नसावा ।
जय मारुतसुत जय अनुकुला, नाम कृशानु शोक सम तुला॥
जहं जीवन पर संकट होई, रवि तम सम सों संकट खोई ।
बन्दि परै सुमिरे हनुमाना, संकट कटै धरै जो ध्याना ॥
जाको बांध वाम पद दीन्हा, मारुतसुत व्याकुल बहु कीन्हा ।
जो भुजबल का कीन कृपाला, आछत तुम्हें मोर यह हाला ॥
आरत हरन नाम हनुमाना, सादर सुरपति कीन बखाना ।
संकट रहै न एक रती को, ध्यान धरै हनुमान जती को ॥
धावहु देखि दीनता मोरि, कहौं पवनसुत युगकर जोरि ।
कपिपति बेगि अनुग्रह करहु, आतुर आई दुसह दुख हरहु ॥
रामशपथ मैं तुमहिं सुनाया, जवन गुहार लाग सिय जाया ।
पैज तुम्हार सकल जग जाना , भव बंधन भंजन हनुमाना ॥
यह बंधन कर केतिक बाता, नाम तुम्हार जगत सुख दाता ।
करौ कृपा जय जय जगस्वामी, बार अनेक नमामि नमामि ॥
भौमवार कर होम विधाना, सुन नर मुनि वाछिंत फल पावै ।
जयति जयति जय जय जग स्वामी, समरथ पुरुष सुअंतरयामी ॥
अंजनि तनय नाम हनुमाना, सो तुलसी के प्राण समाना ॥

।। दोहा ।।

जय कपीश सुग्रीव तुम, जय अंगद हनुमान ।
रामलखन सीता सहित, सदा करौ कल्यान ॥
बन्दौ हनुमत नाम यह, मंगलवार प्रमाण ।
ध्यान धरै नर निश्चय, पावै पद कल्याण ॥
जो नित पढै यह साठिका, तुलसी कहै विचारि ।
रहै न संकट ताहि को , साक्षी हैं त्रिपुरारि ॥
।। सवैया ।।
आरत बन पुकारत हौं कपिनाथ सुनो विनती मम भारी ।
अंगद औ नल-नील महाबलि देव सदा बल की बलिहारी ।।
जाम्बवन्त् सुग्रीव पवन-सुत दिबिद मयंद महा भटभारी ।
दुःख दोष हरो तुलसी जन-को श्री द्वादश बीरन की बलिहारी ।।

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

सोलह कलाएँ




कला को अवतारी शक्ति की एक इकाई मानें तो श्रीकृष्ण सोलह कला अवतार माने गए हैं। सोलह कलाओं से युक्त अवतार पूर्ण माना जाता हैं, अवतारों में श्रीकृष्ण में ही यह सभी कलाएं प्रकट हुई थी। इन कलाओं के नाम निम्नलिखित हैं।

१. श्री धन संपदा : प्रथम कला धन संपदा नाम से जानी जाती हैं है। इस कला से युक्त व्यक्ति के पास अपार धन होता हैं और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ वापस नहीं जाता, उस शक्ति से युक्त कला को प्रथम कला! श्री-धन संपदा के नाम से जाना जाता हैं।

२. भू अचल संपत्ति : वह व्यक्ति जो पृथ्वी के राज भोगने की क्षमता रखता है; पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है तथा उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह कला! भू अचल संपत्ति कहलाती है।

३. कीर्ति यश प्रसिद्धि : जिस व्यक्ति की मान-सम्मान और यश की कीर्ति चारों और फैली हुई हो, लोग जिसके प्रति स्वतः ही श्रद्धा और विश्वास रखते हैं, वह कीर्ति यश प्रसिद्धि कला से संपन्न माने जाते है।

४. इला वाणी की सम्मोहकता : इस कला से संपन्न व्यक्ति मोहक वाणी युक्त होता हैं; व्यक्ति की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता है तथा मन में भक्ति की भावना भर उठती हैं।

५. लीला आनंद उत्सव : इस कला से युक्त व्यक्त अपने जीवन की लीलाओं को रोचक और मोहक बनाने में सक्षम होता है। जिनकी लीला कथाओं को सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।

६. कांति सौदर्य और आभा : ऐसे व्यक्ति जिनके रूप को देखकर मन स्वतः ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है, वे इस कला से युक्त होते हैं। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह कांति सौदर्य और आभा कला से संपन्न होता है।

७. विद्या मेधा बुद्धि : सभी प्रकार के विद्याओं में निपुण व्यक्ति जैसे! वेद-वेदांग के साथ युद्ध और संगीत कला इत्यादि में पारंगत व्यक्ति इस काला के अंतर्गत आते हैं।

८. विमला पारदर्शिता : जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं होता वह विमला पारदर्शिता कला से युक्त होता हैं; इनके लिए सभी एक समान होते हैं, न तो कोई बड़ा है और न छोटा।

९. उत्कर्षिणि प्रेरणा और नियोजन : युद्ध तथा सामान्य जीवन में जी प्रेरणा दायक तथा योजना बद्ध तरीके से कार्य करता हैं वह इस कला से निपुण होता हैं। व्यक्ति में इतनी शक्ति व्याप्त होती हैं कि लोग उसकी बातों से प्रेरणा लेकर लक्ष्य भेदन कर सकें।

१०. ज्ञान नीर क्षीर विवेक : अपने विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान करने से युक्त गुण ज्ञान नीर क्षीर विवेक नाम से जाना जाता हैं।

११. क्रिया कर्मण्यता : जिनकी इच्छा मात्र से संसार का हर कार्य हो सकता है तथा व्यक्ति सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करता हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देता हैं।

१२. योग चित्तलय : जिनका मन केन्द्रित है, जिन्होंने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह योग चित्तलय कला से संपन्न होते हैं; मृत व्यक्ति को भी पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हैं।

१३. प्रहवि अत्यंतिक विनय : इसका अर्थ विनय है, मनुष्य जगत का स्वामी ही क्यों न हो, उसमें कर्ता का अहंकार नहीं होता है।

१४. सत्य यथार्य : व्यक्ति कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखता और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जनता हैं यह कला सत्य यथार्य के नाम से जानी जाती हैं।

१५. इसना आधिपत्य : व्यक्ति में वह गुण सर्वदा ही व्याप्त रहती हैं, जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है, आवश्यकता पड़ने पर लोगों को अपना प्रभाव की अनुभूति करता है।

१६. अनुग्रह उपकार : निस्वार्थ भावना से लोगों का उपकार करना अनुग्रह उपकार है।

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

शाबर मंत्र (दस महाविद्या)


सत नमो आदेश । गुरुजी को आदेश । ॐ गुरुजी । ॐ सोऽहं सिद्ध की काया, तीसरा नेत्र त्रिकुटी ठहराया । गगण मण्डल में अनहद बाजा । वहाँ देखा शिवजी बैठा, गुरु हुकम से भितरी बैठा, शुन्य में ध्यान गोरख दिठा । यही ध्यान तपे महेशा, यही ध्यान ब्रह्माजी लाग्या । यही ध्यान विष्णु की माया ! ॐ कैलाश गिरी से, आयी पार्वती देवी, जाकै सन्मुख बैठ गोरक्ष योगी, देवी ने जब किया आदेश । नहीं लिया आदेश, नहीं दिया उपदेश । सती मन में क्रोध समाई, देखु गोरख अपने माही, नौ दरवाजे खुले कपाट, दशवे द्वारे अग्नि प्रजाले, जलने लगी तो पार पछताई । राखी राखी गोरख राखी, मैं हूँ तेरी चेली, संसार सृष्टि की हूँ मैं माई । कहो शिवशंकर स्वामीजी, गोरख योगी कौन है दिठा । यह तो योगी सबमें विरला, तिसका कौन विचार । हम नहीं जानत, अपनी करणी आप ही जानी । गोरख देखे सत्य की दृष्टि । दृष्टि देख कर मन भया उनमन, तब गोरख कली बिच कहाया । हम तो योगी गुरुमुख बोली, सिद्धों का मर्म न जाने कोई । कहो पार्वती देवीजी अपनी शक्ति कौन-कौन समाई । तब सती ने शक्ति की खेल दिखायी, दस महाविद्या की प्रगटली ज्योति ।
प्रथम ज्योति महाकाली प्रगटली ।

॥ महाकाली ॥

ॐ निरंजन निराकार अवगत पुरुष तत सार, तत सार मध्ये ज्योत, ज्योत मध्ये परम ज्योत, परम ज्योत मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भु शिवानी काली ओ काली काली महाकाली, कृष्ण वर्णी, शव वहानी, रुद्र की पोषणी, हाथ खप्पर खडग धारी, गले मुण्डमाला हंस मुखी । जिह्वा ज्वाला दन्त काली । मद्यमांस कारी श्मशान की राणी । मांस खाये रक्त-पी-पीवे । भस्मन्ति माई जहाँ पर पाई तहाँ लगाई । सत की नाती धर्म की बेटी इन्द्र की साली काल की काली जोग की जोगीन, नागों की नागीन मन माने तो संग रमाई नहीं तो श्मशान फिरे अकेली चार वीर अष्ट भैरों, घोर काली अघोर काली अजर बजर अमर काली भख जून निर्भय काली बला भख, दुष्ट को भख, काल भख पापी पाखण्डी को भख जती सती को रख, ॐ काली तुम बाला ना वृद्धा, देव ना दानव, नर ना नारी देवीजी तुम तो हो परब्रह्मा काली ।
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।
द्वितीय ज्योति तारा त्रिकुटा तोतला प्रगटी ।

॥ तारा ॥

ॐ आदि योग अनादि माया जहाँ पर ब्रह्माण्ड उत्पन्न भया । ब्रह्माण्ड समाया आकाश मण्डल तारा त्रिकुटा तोतला माता तीनों बसै ब्रह्म कापलि, जहाँ पर ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पत्ति, सूरज मुख तपे चंद मुख अमिरस पीवे, अग्नि मुख जले, आद कुंवारी हाथ खण्डाग गल मुण्ड माल, मुर्दा मार ऊपर खड़ी देवी तारा । नीली काया पीली जटा, काली दन्त में जिह्वा दबाया । घोर तारा अघोर तारा, दूध पूत का भण्डार भरा । पंच मुख करे हां हां ऽऽकारा, डाकिनी शाकिनी भूत पलिता सौ सौ कोस दूर भगाया । चण्डी तारा फिरे ब्रह्माण्डी तुम तो हों तीन लोक की जननी ।
ॐ ह्रीं स्त्रीं फट्, ॐ ऐं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट्
तृतीय ज्योति त्रिपुर सुन्दरी प्रगटी ।

॥ षोडशी-त्रिपुर सुन्दरी ॥

ॐ निरञ्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई, ज्योति मध्ये ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्याः उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवधर बैठो, मन उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद । तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश । हाथ चाप शर धर एक हाथ अंकुश । त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी । इडा पिंगला सुषम्ना देवी नागन जोगन त्रिपुर सुन्दरी । उग्र बाला, रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला । योगी के घर जोगन बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता ।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं
हसकहल ह्रीं सकल ह्रीं सोः
ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ।
चतुर्थ ज्योति भुवनेश्वरी प्रगटी ।‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍

॥ भुवनेश्वरी ॥

ॐ आदि ज्योति अनादि ज्योत ज्योत मध्ये परम ज्योत परम ज्योति मध्ये शिव गायत्री भई उत्पन्न, ॐ प्रातः समय उत्पन्न भई देवी भुवनेश्वरी । बाला सुन्दरी कर धर वर पाशांकुश अन्नपूर्णी दूध पूत बल दे बालका ऋद्धि सिद्धि भण्डार भरे, बालकाना बल दे जोगी को अमर काया । चौदह भुवन का राजपाट संभाला कटे रोग योगी का, दुष्ट को मुष्ट, काल कन्टक मार । योगी बनखण्ड वासा, सदा संग रहे भुवनेश्वरी माता ।
ह्रीं
पञ्चम ज्योति छिन्नमस्ता प्रगटी ।

॥ छिन्नमस्ता ॥

सत का धर्म सत की काया, ब्रह्म अग्नि में योग जमाया । काया तपाये जोगी (शिव गोरख) बैठा, नाभ कमल पर छिन्नमस्ता, चन्द सूर में उपजी सुष्मनी देवी, त्रिकुटी महल में फिरे बाला सुन्दरी, तन का मुन्डा हाथ में लिन्हा, दाहिने हाथ में खप्पर धार्या । पी पी पीवे रक्त, बरसे त्रिकुट मस्तक पर अग्नि प्रजाली, श्वेत वर्णी मुक्त केशा कैची धारी । देवी उमा की शक्ति छाया, प्रलयी खाये सृष्टि सारी । चण्डी, चण्डी फिरे ब्रह्माण्डी भख भख बाला भख दुष्ट को मुष्ट जती, सती को रख, योगी घर जोगन बैठी, श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने भाखी । छिन्नमस्ता जपो जाप, पाप कन्टन्ते आपो आप, जो जोगी करे सुमिरण पाप पुण्य से न्यारा रहे । काल ना खाये ।
श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र-वैरोचनीये हूं हूं फट् स्वाहा ।
षष्टम ज्योति भैरवी प्रगटी ।

॥ भैरवी ॥

ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा, गले में माला मुण्डन की । अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती ! काला खप्पर हाथ खंजर, कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई सातवें पाताल, सातवें पाताल मध्ये परम-तत्त्व परम-तत्त्व में जोत, जोत में परम जोत, परम जोत में भई उत्पन्न काल-भैरवी, त्रिपुर-भैरवी, सम्पत्त-प्रदा-भैरवी, कौलेश-भैरवी, सिद्धा-भैरवी, विध्वंसिनि-भैरवी, चैतन्य-भैरवी, कामेश्वरी-भैरवी, षटकुटा-भैरवी, नित्या-भैरवी । जपा अजपा गोरक्ष जपन्ती यही मन्त्र मत्स्येन्द्रनाथजी को सदा शिव ने कहायी । ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी अनन्त कोट सिद्धा ले उतरेगी काल के पार, भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर, दूर हटे काल जंजाल भैरवी मन्त्र बैकुण्ठ वासा । अमर लोक में हुवा निवासा ।
ॐ ह्सैं ह्स्क्ल्रीं ह्स्त्रौः
सप्तम ज्योति धूमावती प्रगटी

॥ धूमावती ॥

ॐ पाताल निरंजन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार, आकाश दिशा से कौन आये, कौन रथ कौन असवार, आकाश दिशा से धूमावन्ती आई, काक ध्वजा का रथ अस्वार आई थरै आकाश, विधवा रुप लम्बे हाथ, लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली, क्लेश कलह कालरात्रि । डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी । जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाजा जीया आकाश तेरा होये । धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ आप भयी अतीत ।
ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा ।
अष्टम ज्योति बगलामुखी प्रगटी ।

॥ बगलामुखी ॥

ॐ सौ सौ दुता समुन्दर टापू, टापू में थापा सिंहासन पिला । संहासन पीले ऊपर कौन बसे । सिंहासन पीला ऊपर बगलामुखी बसे, बगलामुखी के कौन संगी कौन साथी । कच्ची बच्ची काक-कूतिया-स्वान-चिड़िया, ॐ बगला बाला हाथ मुद्-गर मार, शत्रु हृदय पर सवार तिसकी जिह्वा खिच्चै बाला । बगलामुखी मरणी करणी उच्चाटण धरणी, अनन्त कोट सिद्धों ने मानी ॐ बगलामुखी रमे ब्रह्माण्डी मण्डे चन्दसुर फिरे खण्डे खण्डे । बाला बगलामुखी नमो नमस्कार ।
ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-बाणाय धीमहि तन्नो बगला प्रचोदयात् ।
नवम ज्योति मातंगी प्रगटी ।

॥ मातंगी ॥

ॐ शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ॐ-कार, ॐ-कार में शक्ति, शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना, सुभय में धाम कमल में विश्राम, आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला, शीश पर अस्वारी उग्र उन्मत्त मुद्राधारी, उद गुग्गल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य-मांसे घृत-कुण्डे सर्वांगधारी । बुन्द मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते । ॐ मातंगी-सुन्दरी, रुपवन्ती, कामदेवी, धनवन्ती, धनदाती, अन्नपूर्णी अन्नदाती, मातंगी जाप मन्त्र जपे काल का तुम काल को खाये । तिसकी रक्षा शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी करे ।
ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा ।
दसवीं ज्योति कमला प्रगटी ।

॥ कमला ॥

ॐ अ-योनी शंकर ॐ-कार रुप, कमला देवी सती पार्वती का स्वरुप । हाथ में सोने का कलश, मुख से अभय मुद्रा । श्वेत वर्ण सेवा पूजा करे, नारद इन्द्रा । देवी देवत्या ने किया जय ॐ-कार । कमला देवी पूजो केशर पान सुपारी, चकमक चीनी फतरी तिल गुग्गल सहस्र कमलों का किया हवन । कहे गोरख, मन्त्र जपो जाप जपो ऋद्धि सिद्धि की पहचान गंगा गौरजा पार्वती जान । जिसकी तीन लोक में भया मान । कमला देवी के चरण कमल को आदेश ।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध-लक्ष्म्यै नमः ।

सुनो पार्वती हम मत्स्येन्द्र पूता, आदिनाथ नाती, हम शिव स्वरुप उलटी थापना थापी योगी का योग, दस विद्या शक्ति जानो, जिसका भेद शिव शंकर ही पायो । सिद्ध योग मर्म जो जाने विरला तिसको प्रसन्न भयी महाकालिका । योगी योग नित्य करे प्रातः उसे वरद भुवनेश्वरी माता । सिद्धासन सिद्ध, भया श्मशानी तिसके संग बैठी बगलामुखी । जोगी खड दर्शन को कर जानी, खुल गया ताला ब्रह्माण्ड भैरवी । नाभी स्थाने उडीय्यान बांधी मनीपुर चक्र में बैठी, छिन्नमस्ता रानी । ॐ-कार ध्यान लाग्या त्रिकुटी, प्रगटी तारा बाला सुन्दरी । पाताल जोगन (कुण्डलिनी) गगन को चढ़ी, जहां पर बैठी त्रिपुर सुन्दरी । आलस मोड़े, निद्रा तोड़े तिसकी रक्षा देवी धूमावन्ती करें । हंसा जाये दसवें द्वारे देवी मातंगी का आवागमन खोजे । जो कमला देवी की धूनी चेताये तिसकी ऋद्धि सिद्धि से भण्डार भरे । जो दसविद्या का सुमिरण करे । पाप पुण्य से न्यारा रहे । योग अभ्यास से भये सिद्धा आवागमन निवरते । मन्त्र पढ़े सो नर अमर लोक में जाये । इतना दस महाविद्या मन्त्र जाप सम्पूर्ण भया । अनन्त कोट सिद्धों में, गोदावरी त्र्यम्बक क्षेत्र अनुपान शिला, अचलगढ़ पर्वत पर बैठ श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने पढ़ कथ कर सुनाया श्रीनाथजी गुरुजी को आदेश । आदेश ॥

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

मयूरेश स्तोत्रम्


चिंता एवं रोग निवारण हेतु दुर्लभ स्तोत्रम्।
गणपति भगवान सभी विघ्नों का नाश करने वाले एक मात्र सक्षम भगवान हैं सभी कार्यो को सिद्ध करने वाले हैं यदि किसी भी पूजा या अनुष्ठान में इनको चश्मदीद गवाह बना लिया जाये तो पूजन या अनुष्ठान सफल होता है। ऐसे है हमारे शिवगौरी नंदन गणपति महाराज।

यूँ तो गणपति महाराज के अनेको स्तोत्रम् हैं परंतु मयूर स्तोत्रम् का महत्व सर्वोपरि है।यह स्तोत्र अपने आप में चैतन्य और मन्त्र सिद्ध है अतः इसका पाठ ही पूर्ण सफलता प्रदान करने वाला है।

घर में आने वाली बाधाओ, बच्चों के रोग के निवारण, सुख शांति, उन्नति, प्रगति तथा प्रत्येक क्षेत्र में इसका नियमित पाठ सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

इस स्तोत्र का पाठ स्त्री एवं पुरुष सामान रूप से कर सकते हैं। हमारे जीवन का प्रत्येक दिन गुरु स्तवन और मयूरेश स्तोत्रम् से हो तो जीवन में गणपति महाराज कोई विघ्न नही आने देते।

सर्व प्रथम स्नान कर आसान को स्पर्श करके मस्तक से लगाएं। पूर्व की तरफ मुँह करके बैठे अपने सामने गणपति यंत्र या मूर्ती स्थापित करें। पूजा शुक्ल पक्ष के बुधवार को प्रारम्भ करें।

“वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ |
निर्विघ्नं कुरु में देव सर्व कार्येशु सर्वदा ||”
सर्वप्रथम गुरु जी का पंचोपचार से पूजन करे। उसके बाद गणपति महाराज को प्रणाम करें।

“सर्व स्थूलतनुम् गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम
प्रस्यन्द्न्मधुगंधलुब्धमधुपव्यालोलगंडस्थलम |
दंताघातविदारितारीरुधिरे: सिन्दुरशोभाकर,
वन्दे शैलसुत गणपति सिद्धिप्रदं कामदम ||

सिन्दुराभ त्रिनेत्र प्रथुतरजठर हमेर्दधानस्त्पदमेर्दधानम्
दंत पाशाकुशेष्ट-अन्द्दु रुकर्विलसद्विजपुरा विरामम,
बालेन्दुद्दौतमौली करिपतिवदनं दानपुरार्र्गन्ड-
भौगिन्द्रा बद्धभूप भजत गणपति रक्तवस्त्रान्गरांगम .

सुमुखश्चेक़दंतश्च कपिलो गजकर्णक:
लम्बोदरश्च विक्तो विघ्ननाशो विनायकः
धूम्रकेतु गणध्यक्षो भालचन्द्रो गजानना:
द्वादशेतानी नामानि य पठच्छ्रणुयदपि |
विद्धारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा |
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्यतस्य ना जायते ||”

तत्पश्चात गणपति महाराज के 12 नामो का स्मरण करे।

सुमुखश्च-एकदंतश्च कपिलो गज कर्णक:
लम्बोदरश्व विकटो विघ्ननाशो विनायक:
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:
द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छर्णुयादपि
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा
संग्रामें संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जयते।

इसके बाद गणपति सरकार की षोडशोपचार से पूजा करें।
1। आह्वान।
2। आसान।
3। पाध्य।
4। अर्घ्य।
5।आचमनीय।
6।स्नान।
7। वस्त्र।
8।यज्ञोपवीत।
9।गंध।
10।पुष्प ( दूर्वा)।
11। धुप।
12। दीप।
13। नैवैध।
14। ताम्बूल।
15। प्रदक्षिणा।
16। पुष्पांजलि।

सावधानियां।
1। तुलसी का प्रयोग गणपति पूजन में न करें।
2। गणपति जी को दूर्वादल अति प्रिय है।
3।अर्घ्य में निम्न 8  वस्तुए होती है ध्यान रखें।

A. दही।
B. दूर्वा।
C. कुशाग्र।
D. पुष्प।
E. अक्षत।
F. कुंकुम।
G. पीली सरसों।
H. सुपारी।

इन 8 वस्तुओं को एक पात्र में लेकर गणपति जी को अर्घ्य दिया जाता है।

4। कोई सामग्री न हो तो अक्षत का प्रयोग किया जाता है।

5। घी का दीपक प्रज्वलित करे।

“मयुरेश स्त्रोत”
ब्रह्मोवाच
पुराणपुरुषं देवं नानाक्रीडाकरं मुदा।
मायाविनं दुर्विभाव्यं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
परात्परं चिदानन्दं निर्विकारं हृदि स्थितम्।
गुणातीतं गुणमयं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
सृजन्तं पालयन्तं च संहरन्तं निजेच्छया।
सर्वविघन्हरं देवं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
नानादैत्यनिहन्तारं नानारूपाणि विभ्रतम्।
नानायुधधरं भक्त्या मयूरेशं नमाम्यहम्॥
इन्द्रादिदेवतावृन्दैरभिष्टुतमहर्निशम्।
सदसद्वयक्तमव्यक्तं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
सर्वशक्तिमयं देवं सर्वरूपधरं विभुम्।
सर्वविद्याप्रवक्तारं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
पार्वतीनन्दनं शम्भोरानन्दपरिवर्धनम्।
भक्तानन्दकरं नित्यं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
मुनिध्येयं मुनिनुतं मुनिकामप्रपूरकम्।
समाष्टिव्यष्टिरूपं त्वां मयूरेशं नमाम्यहम्॥
सर्वाज्ञाननिहन्तारं सर्वज्ञानकरं शुचिम्।
सत्यज्ञानमयं सत्यं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
अनेककोटिब्रह्माण्डनायकं जगदीश्वरम्।
अनन्तविभवं विष्णुं मयूरेशं नमाम्यहम्॥

मयूरेश उवाच
इदं ब्रह्मकरं स्तोत्रं सर्वपापप्रनाशनम्।
सर्वकामप्रदं नृणां सर्वोपद्रवनाशनम्॥
कारागृहगतानां च मोचनं दिनसप्तकात्।
आधिव्याधिहरं चैव भुक्तिमुक्तिप्रदं शुभम्॥

महीनों के नामों का नक्षत्रों से संबंध


हिन्दू धर्मानुसार महीनों के जो नाम रखे गए हैं उनसे मौसम की ऋतुएं जुड़ीं है। इन सबका ज्योतिषीय आधार है। उसी से संबंधिइत है नक्षत्रों का नामकरण। पेश है इसी से जुड़ी रोचक जानकारी। 


*चंद्रमा के महीनों में पहला महीना चैत्र आता है। द‍ेखिए प्रमाण- इसकी पूर्णिमा को हमेशा चित्रा नक्षत्र ही आता है।

*दूसरा महीना बैसाख कहलाता है, इसकी पूर्णिमा पर बिशाखा नक्षत्र रहता है।

*ज्येष्ठ की पूर्णिमा को ज्येष्ठा नक्षत्र आता है।


*आषाढ़ की पूर्णिमा को पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ा दो नक्षत्रों में से एक रहता है।

*श्रावण की पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र रहता है।

*भादो (भाद्रपद) की पूर्णिमा को भाद्रपद या उत्तराभाद्रपद नक्षत्र रहेगा।

*अ‍ाश्विन माह की पूर्णिमा को अ‍ाश्विनी नक्षत्र कहलाता है।

*कार्तिक माह की पूर्णिमा को कृतिका नक्षत्र।

*मार्गशीर्ष महीने की पूर्णिमा को मृगशिरा नक्षत्र।

*पौष माह की पूर्णिमा को पुष्‍य नक्षत्र।

*माघ की पूर्णिमा को मघा नक्षत्र।

*फाल्गुन की पूर्णिमा को पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र रहेगा।

चैत्र की पूर्णिमा से फाल्गुन तक आपने देखा हर महीने का नाम और नक्षत्र का विलक्षण संयोग।